फिल्में मनोरंजन का अच्छा जरीया होती हैं. हालांकि फिल्म बनाने वाले कभी यह नहीं मानते हैं कि उन की फिल्मों को देख कर लोग अपनी जिंदगी बनाते हैं या बिगाड़ते हैं, पर चूंकि फिल्मी कहानियों में कोई न कोई सीख छिपी रहती है, लिहाजा उन का दर्शकों पर कुछ न कुछ असर तो पड़ता ही है.
एक फिल्म आई थी 'ट्रैफिक सिगनल'. उस में एक छोटे बच्चे का किरदार था, जो चौराहे पर भीख मांगता है. वह बच्चा रंग से काला होता है और उस के मन में यह बात गांठ बांध चुकी होती है कि गोरा करने की क्रीम से वह भी निखर जाएगा. ऐसा होता तो नहीं है, पर यह बात जरूर साबित हो जाती है कि गंदगी भरे माहौल में रहने का यह मतलब नहीं है कि आप हमेशा बिना नहाए, मैलेकुचैले कपड़ों में पैर भिड़ाते इधर से उधर घूमो और अपनी फूटी किस्मत को रोओ.
जब से शहर बने हैं, तब से उन के आसपास गंदी बस्तियों का जमावड़ा लगना शुरू हुआ है. पहले लोग गांवकसबों में ही रहते थे. गांवदेहात में कच्चे घर, खेतखलिहान, तालाबकुएं, ज्यादा से ज्यादा अनाज मंडी तक किसान और उस के परिवार की पहुंच थी, लिहाजा ऐसा मान लाया जाता था कि मोटा खाओ और सादा जियो.
इस सादा जिंदगी में नहानेधोने, कपड़े पहनने पर इतना जोर नहीं रहता था. ज्यादातर देहाती आबादी को कहें तो उठनेबैठने का भी शऊर नहीं था, तभी तो अगर कोई किसान नए कपड़े पहन कर, नहाधो कर घर से बाहर निकलता था तो दूसरे लोग मजाक में पूछ लेते थे कि जनेत (बरात) में जा रहा है क्या?
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