कारोबार के हर क्षेत्र में इन दिनों एक नई संस्कृति का उभार होता नजर आ रहा है और वह है कौर्पोरेट संस्कृति. चिकित्सा के क्षेत्र में भी यह संस्कृति अपने पांव तेजी से फैला रही है. आजादी के बाद से ले कर अब तक अस्पताल प्रबंधन और इलाज में तकनीकी बदलाव के साथ ही साथ पेशेवर रवैया अपनाया जा रहा है. बिड़ला, टाटा, अपोलो, हिंदुजा जैसे बड़ेबड़े औद्योगिक घरानों के अस्पताल पहले से ही सुपर स्पैशलिटी अस्पताल के रूप में जाने जाते थे, अब रिलायंस, डालमिया, इमामी, फोर्टिस सहित बहुत सारे औद्योगिक ग्रुप कौर्पोरेट चिकित्सा के साथ स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में कदम बढ़ा रहे हैं, फिर वह अस्पताल, नर्सिंगहोम, क्लिनिक, डायग्नौसिस सैंटर हो या स्वास्थ्य बीमा का क्षेत्र. चिकित्सा से जुड़े इन तमाम क्षेत्रों में कौर्पोरेट स्तर की सेवाएं दी जा रही हैं.

आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था को ले कर समयसमय पर हुए सर्वेक्षण का नतीजा यही कहता रहा है कि कौर्पोरेट अस्पताल संस्कृति के कारण आने वाले समय में चिकित्सा क्षेत्र में बहुत बड़ा परिवर्तन आने वाला है. आधुनिक चिकित्सा मोटेतौर पर हर किसी को उपलबध हो रही है. वहीं रोजगार की भी गुंजाइश बढ़ी है. कौर्पोरेट अस्पतालों में आधुनिक चिकित्सा उपकरणों को औपरेट करने वाले प्रशिक्षित लैब तकनीशियनों, रेडियोलौजिस्ट, फिजियोथेरैपी पैरामैडिकल स्टाफ, नर्सिंग कर्मियों और नई बीमारियों से निबटने के लिए विशेषतौर पर प्रशिक्षित डाक्टरों के लिए भी गुंजाइश बढ़ी है.

स्वास्थ्य सेवा के सितारे

भारत में स्वास्थ्य सेवा का पिछले ढाईतीन दशकों का सफर बड़ा दिलचस्प रहा है. कौर्पोरेट चिकित्सा पद्घति से पहले देश के निजी अस्पतालों में सुपरस्पैशलिटी सेवाएं आरंभ हुईं. इस ने स्वास्थ्य सेवा को एक नया आयाम तो दिया पर यह एक खास वर्ग तक ही सीमित थी. स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में कुछ नाम हैं जिन्होंने इस क्षेत्र को नई ऊंचाइयां दी हैं और ये नाम इस क्षेत्र के सितारे हैं. ऐसा ही एक नाम हैं डा. प्रताप रेड्डी. इन के अवदानों को कभी भुलाया नहीं जा सकता. अपोलो फेम डा. रेड्डी को भारत के कौर्पोरेट चिकित्सा क्षेत्र में अग्रणी के रूप में जाना जाता है. इस क्षेत्र में अपोलो एक क्रांति के रूप में उभर कर आया. कहते हैं डा. रेड्डी का मकसद भारत में अपोलो अस्पतालों की श्रृंखला के रूप में ऐसा मैडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने का था जिस में हर किसी को इलाज मुहैया हो सके. देश का आम आदमी चिकित्सा का खर्च वहन कर सके.

चेन्नई में 1983 में अपोलो अस्पताल ने अपना पहला कदम रखा. आज दक्षिण एशिया और मध्यपूर्व के देशों समेत दुनिया के 9 देशों में अपोलो की स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं. भारत में अपोलो के 64 वर्ल्ड क्लास अस्पताल व क्लिनिक हैं, लगभग 9 हजार बैड, डेढ़ हजार से अधिक फार्मेसी, लगभग 150 प्राथमिक चिकित्सा केंद्र और डायग्नौसिस सैंटर के साथ स्वास्थ्य बीमा, ग्लोबल कंसल्टैंसी, 15 नर्सिंग कालेज व अस्पताल मैनेजमैंट व रिसर्च फाउंडेशन हैं.

हमारे देश में डा. प्रताप रेड्डी के अलावा चिकित्सा क्षेत्र में एक और व्यक्तित्व है जो पूरे दिलोजान से अपने पेशे के लिए समर्पित है. और वह व्यक्तित्व है डा. देवी शेट्टी. दिल की बीमारी से ग्रस्त गरीबों के लिए डा. शेट्टी नाम किसी से छिपा नहीं. अब तक वे लगभग 20 हजार ओपन हार्ट सर्जरी कर चुके हैं. सफल सर्जरी का प्रतिशत 98 है. 1991 में डा. शेट्टी ने एक बच्चे की हार्ट सर्जरी की, जो कि देश में पहली सफल ओपन हार्ट सर्जरी के रूप में जानी जाती है. वे मदर टेरेसा के व्यक्तिगत डाक्टर थे.

मदर टेरेसा की सोहबत में इन के दिल में गरीबों के लिए दर्द पैदा हुआ और बिड़ला के कैलकटा हौस्पिटल में एक गरीब मरीज की ओपन हार्ट सर्जरी करने के बाद सर्जन के रूप में डा. शेट्टी ने अपनी फीस माफ कर दी. यह बात अस्पताल प्रबंधन को नागवार गुजरी. डा. शेट्टी ने उसी दम इस्तीफा दे दिया.

डा. शेट्टी बेंगलुरु चले गए और वहां उन्होंने मणिपाल हार्ट फाउंडेशन की स्थापना की. इस के बाद 2001 में नारायण हृदयालय के नाम से एक ट्रस्ट और अस्पताल की स्थापना की. अस्पताल के पीछे हैल्थ सिटी भी तैयार की गई है.

आज नारायण गु्रप का हृदयालय बेंगलुरु, अहमदाबाद, बरहमपुर, धारवाड़, गुवाहाटी, जयपुर, हैदराबाद और जमशेदपुर समेत 17 जगहों में 29 हैं. कोलकाता में डा. शेट्टी का अस्पताल रवींद्रनाथ टैगोर हार्ट फाउंडेशन के नाम से जाना जाता है. डा. शेट्टी के लगभग हरेक अस्पताल में 4-5 बिल्ंिडग्स और 2-5 हजार बैड हैं. इन अस्पतालों में हार्ट, बौनमैरो, किडनी और लीवर प्रत्यारोपण से ले कर हर तरह की बीमारियों का इलाज समाज के हर स्तर के लोगों का हो रहा है.

बढ़ रहा है कौर्पोरेट अस्पतालों का कारोबार

देश के महानगरों और बड़े शहरों में पिछले 2 दशकों से निजी अस्पतालों में इलाज से ले कर प्रबंधन तक का काम कौर्पोरेट ढांचे में ढल रहा है. कोलकाता, बिहार और पूर्वोत्तर के राज्यों समेत देशभर से लोगों के लिए दक्षिण भारत में चेन्नई, वेल्लोर, हैदराबाद, बेंगलुरु इलाज का सब से भरोसेमंद ठिकाना हुआ करता था. हर छोटेबड़े इलाज के लिए लोग दक्षिण भारत का रुख किया करते थे. आंखों के लिए चेन्नई का शंकर नेत्रालय और हैदराबाद का एल वी प्रसाद अस्पताल, दूसरी अन्य गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए वेल्लोर के क्रिश्चियन मैडिकल कालेज और चेन्नई में अपोलो अस्पताल हैं. कोलकाता, बिहार और पूर्वोत्तर भारत के राज्यों के अलावा बंगलादेश और म्यांमार तक से मरीज दक्षिण भारत आते रहे हैं. यहां तक कि जमीनजायदाद तक बेच कर लोग दक्षिण भारत में कम खर्च में बेहतरीन इलाज के लिए जाते रहे हैं.

अब अगर कोलकाता की बात करें तो एक समय था यहां के लोग भी बेहतरीन इलाज के लिए ज्यादातर दक्षिण भारत का रुख किया करते थे. दक्षिण भारत ही उन का एकमात्र भरोसा था. उस समय यहां इक्केदुक्के निजी अस्पताल ही थे पर वे धनीमानी के लिए ही थे. आम आदमी इन अस्पतालों का रुख कर नहीं पाता था.

पर समय बदला और समय के साथ कोलकाता के चिकित्सा क्षेत्र में भी बड़ा बदलाव आया. पिछले 2 दशकों में अकेले ईस्टर्न बाईपास में 15-20 निजी कौर्पोरेट अस्पताल खुल चुके हैं और एक हद तक यहां अत्याधुनिक चिकित्सा का लाभ समाज के निचले स्तर के लोगों को भी मिल रहा है.

पिछले 5 सालों से अत्याधुनिक चिकित्सा सुविधा के नजरिए से कोलकाता पूर्वोत्तर भारत के लिए गेटवे बना हुआ है. इस के अलावा हर साल हजारों की संख्या में बंगलादेशी कोलकाता आ कर इलाज करा रहे हैं. पिछले साल कोलकाता के पियरलैस अस्पताल में 14 हजार बंगलादेश के नागरिकों ने अपना इलाज करवाया. दिल की बीमारी के अत्याधुनिक इलाज के लिए कोलकाता में प्रख्यात कार्डियक सर्जन डा. देवी शेट्टी का रवींद्रनाथ टैगोर इंटरनैशनल इंस्टिट्यूट औफ कार्डियक साइंस बड़ा भरोसे का अस्पताल माना जाता है. यहां भी बंगलादेश समेत नेपाल, भूटान, म्यांमार से मरीज आते हैं.

लेकिन बंगलादेशी नागरिकों के लिए कोलकाता मैडिकल हब बना हुआ है. इस के पीछे एक बड़ा कारण दिल्ली, मुंबई या दक्षिण भारत में जा कर इलाज करवाने के बजाय कोलकाता में इलाज करवाने में ज्यादा सहूलियत होती है. दरअसल, दोनों का खानपान, रहनसहन और भाषा लगभग एकजैसी है. उस पर बंगलादेश बंगाल के बहुत ही करीब है. बंगाल में यही सुविधा नेपाली, भूटानी नागरिकों को मिलती है. जाहिर है बड़ी संख्या में नेपाल, भूटान के लोग कोलकाता इलाज कराने आते हैं.

इन्हीं वजहों से यहां के कौर्पोरेट अस्पतालों का कारोबार भी बढ़ रहा है. अब इस का फायदा एयरवेज कंपनियों को भी मिलता ही है. हाल ही में अपोलो और जेट एयरलाइंस ने फ्लाई टू गुड हैल्थ योजना के तहत इलाज और हवाईजहाज के किराए में 10 प्रतिशत छूट की भी घोषणा की है.

मल्टीस्पैशलिटी से कौर्पोरेट तक का सफर

निजी अस्पतालों के कौर्पोरेट अस्पताल में तबदील होने के बाद भारत में कुछ सरकारी अस्पताल भी सुपर स्पैशलिटी चिकित्सा सेवा उपलब्ध करा रहे हैं. वैसे भी आज देश में जो अस्पताल कौर्पोरेट अस्पताल के रूप में स्थापित हैं, उन के सफर की शुरुआत सुपर स्पैशलिटी सेवाओं से ही हुई थी. दरअसल, सुपर स्पैशलिटी सेवाओं से अस्पतालों में कौर्पोरेट कल्चर की नींव पड़नी शुरू हुई. शुरू  के दिनों में इस तरह की सेवाओं को केवल बड़े निजी अस्पताल ही मुहैया करा रहे थे. लेकिन बाद में देश के कुछ नामीगिरामी सरकारी अस्पतालों में भी इस की शुरुआत हुई.

दिल्ली का एम्स इसी श्रेणी में आता है. आने वाले दिनों में एम्स की शाखाएं देश के अन्य राज्यों में भी खोले जाने का प्रस्ताव है. इस को ले कर राजनीति भी कुछ कम नहीं हो रही है. बहरहाल, जिस किसी राज्य में एम्स की शाखा खुलेगी, उस राज्य के लिए यह फख्र की बात होगी. वहीं, माना यह भी जा रहा है कि एम्स की स्थापना से उस राज्य में स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बड़ी क्रांति हो जाएगी. बजट में कई राज्यों में एम्स खोले जाने की घोषणा हो चुकी है.

एम्स की ही श्रेणी में आता है कोलकाता का सेठ सुखलाल करनानी अस्पताल, जो एसएसकेएम अस्पताल के नाम से जाना जाता है. इस की स्थापना 1770 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने की थी. तब यह कोलकाता का पहला अस्पताल था और प्रैसिडैंसी जनरल अस्पताल के नाम से जाना जाता था. आजादी के बाद इस का नाम सेठ सुखलाल करनानी अस्पताल पड़ा. यह कोलकाता का सुपर स्पैशलिटी सरकारी अस्पताल है. यहां अत्याधुनिक इलाज की सहूलियत है.

मुंबई के किंग एडवर्ड मैमोरियल अस्पताल को ही लें तो यह न्यूरोसर्जरी के लिए बैस्ट सरकारी अस्पताल के लिए जाना जाता है. हैदराबाद के निजाम इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंस में 28 विभागों में से 14 विभाग ऐसे हैं जहां सुपर स्पैशलिटी सेवाएं मुहैया हैं. चंडीगढ़ का पीजीआईएमईआर और लखनऊ का संजय गांधी इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंस भी न्यूरोसर्जरी के लिए विख्यात है. ये इसी श्रेणी के सरकारी अस्पताल हैं, जहां अत्याधुनिक कौर्पोरेट चिकित्सा सुविधा उपलब्ध है. यहां यह भी कहने की जरूरत है कि अगर सरकारी अस्पतालों का आधुनिकीकरण हो भी रहा है तो यह केवल बड़े शहरों तक ही सीमित है.

ऐसे में भरोसा कौर्पोरेट अस्पताल ही हैं. कुछ कौर्पोरेट अस्पताल हैं जिन की शाखाएं देशभर के विभिन्न राज्यों में हैं. फोर्टिस, अपोलो और टाटा मैमोरियल ऐसे ही कौर्पोरेट अस्पताल हैं. चेन्नई के शंकर नेत्रालय, क्रिश्चियन मैडिकल कालेज, अपोलो, कोलकाता के अपोलो, वेलव्यू और आमरी, हैदराबाद के इंडोयूएस सुपर स्पैशलिटी अस्पताल, एलवी प्रसाद अस्पताल, सैंचुरी अस्पताल, यशोदा अस्पताल से ले कर मुंबई के टाटा अस्पताल, बीच कैंडी, हिंदुजा, लीलावती, कोकिलाबेन अस्पताल, बेंगलुरु के सत्य साईंबाबा इंटरनैशनल अस्पताल, ऐक्सिस सुपर स्पैशलिटी,नैशनल इंस्टिट्यूट औफ मैंटल हैल्थ ऐंड न्यूरोसाइंस और दिल्ली में सर गंगाराम अस्पताल, सफदरजंग अस्पताल, राम मनोहर लोहिया अस्पताल और गुरुग्राम के मेदांता जैसे अस्पतालों में दुनियाभर से लोग इलाज कराने के लिए आते हैं.

मैडिकल टूरिज्म टैलीमैडिसिन

वर्ष 2012 से चिकित्सा क्षेत्र में मैडिकल टूरिज्म और टैलीमैडिसिन की संस्कृति ने जोर पकड़ा. एक वर्ष के अंदर रूस, यूक्रेन, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका, अफ्रीका और दूसरे कई खाड़ी के देशों से मरीज दिल्ली से ले कर मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद, बेंगलुरु में इलाज के लिए आते हैं.

आंकड़ों की मानें तो 2012 में जहां एक लाख 72 हजार लोग इलाज के लिए भारत आए तो 2013 में 2 लाख 36 हजार और 2014 में एक लाख 84 हजार से अधिक विदेशी इलाज के लिए भारत आए. मैडिकल टूरिज्म मार्केट रिपोर्ट के अनुसार, अक्तूबर 2015 तक भारत का मैडिकल टूरिज्म लगभग 2 अरब 22 करोड़ रुपए का था. और अब उम्मीद की जा रही है कि 2020 में यह 4 खरब 67 अरब 18 करोड़ रुपए से 5 खरब 33 अरब 92 करोड़ रुपए तक हो जाएगा.

मैडिकल टूरिज्म में उफान का जो कारण रहा है वह कम खर्च में बेहतरीन इलाज है. मिसाल के तौर पर किसी बीमारी के इलाज के लिए अमेरिका में जो खर्च आता है, उस रकम के महज 10वें हिस्से में एक विदेशी मरीज भारत आ कर इलाज का पूरा खर्च उठा कर लौट जाता है. केवल अमेरिकी नहीं, दुनिया के तमाम हिस्से से लोग यहां आ कर इलाज करवाते हैं. हाल ही में दुनिया की सब से अधिक वजन वाली मिस्र की महिला नागरिक इमान अहमद इलाज के लिए मुंबई आई हैं. बताया जाता है कि अगले 2 सालों तक इमान अहमद का भारत में इलाज होगा.

एक अमेरिकी एजेंसी है जौइंट कमीशन इंटरनैशनल (संक्षेप में जेसीआई) यह एक अलाभकारी एजेंसी है. इस एजेंसी ने दुनियाभर में 21 हजार अस्पतालों को मान्यता दे रखी है. भारत के ऐसे 28 अस्पताल हैं जिन्हें जेसीआई की मान्यताप्राप्त है. इस एजेंसी की ओर से भारत में परामर्शदाता तेलंगाना के डा. महबूब अली खान हैं. यह जेसीआई कौर्पोरेट चिकित्सा पद्घति के बहुत सारे नियमों का पालन करता है.

विदेशी मरीजों का भारत में इलाज कराने के मामले में आईएसओ की तुलना में जेसीआई की मान्यता कहीं अधिक माने रखती है. ज्यादातर विदेशी मरीज जेसीआई द्वारा मान्यताप्राप्त अस्पतालों में इलाज कराना चाहते हैं. अस्पताल और मरीज के बीच जेसीआई एक कड़ी का काम करता है.

बहरहाल, मैडिकल टूरिज्म का एक हिस्सा है टैलीमैडिसिन. यह वह तकनीक है जिस के तहत विदेश में बैठ कर कोई भारत के डाक्टरों से परामर्श कर सकता है. जब कोई मरीज विदेश या भारत के ही किसी दूरदराज के इलाके से आ कर कहीं किसी बड़े शहर में इलाज कराना चाहता है तो इलाज से पहले और बाद में टैलीमैडिसिन की सुविधा बड़ी सहूलियत देती है. भारत में इस की शुरुआत चित्तूर के अपोलो अस्पताल में अरागोंडा नामक प्रोजैक्ट के तहत हुई.

लेकिन आगे चल कर अपोलो अस्पताल के अलावा एशियन हार्ट फाउंडेशन, सूचना तकनीक विभाग, इसरो, दूसरे कई राज्य सरकारों और निजी संस्थाओं के सहयोग से रियल टाइम में मैडिकल परामर्श देने व लेने का काम होता है. कार्डियोलौजी, टैलीरेडियोलौजी, टैलीपैथेलौजी को सपोर्ट करती है. आज दिल्ली में एम्स, लखनऊ में संजय गांधी इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंस के अलावा चंडीगढ़, ओडिशा, शिमला, कटक, रोहतक के कुछ अस्पतालों में इस की सुविधा उपलब्ध है.

पिछले कुछ सालों में इसरो के टैलीमैडिसिन नैटवर्क का विस्तार हुआ है. अब इस नैटवर्क से कम से कम 45 ग्रामीण अस्पताल और 15 सुपर स्पैशलिटी अस्पताल जुड़े हुए हैं जिन में अंडमान निकोबार से ले कर कारगिल, लेह, लक्षद्वीप शामिल हैं. जहां तक पश्चिम बंगाल का सवाल है तो कोलकाता में स्कूल औफ ट्रौपिकल मैडिसिन, एसकेकेएम, नीलरतन सरकारी अस्पताल में भी टैलीमैडिसिन की सहूलियत है. इस के साथ ही, बंगाल के कई जिलों में भी टैलीमैडिसिन की सुविधा है. कोलकाता के रवींद्रनाथ टैगोर इंटरनैशनल इंस्टिट्यूट औफ कार्डियक साइंस और बेंगलुरु का नारायण हृदयालय को टैलीमैडिसिन का लिंक हब बनाया गया है.

सरकारी स्वास्थ्य बजट

सरकारी बजट में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए अलग से रकम मुहैया कराई जाती है. लेकिन पाया गया है कि ज्यादातर सरकारी अस्पताल कुछ अत्याधुनिक चिकित्सा से संबंधित डायग्नौसिस मशीनें और दूसरे कई उपकरण तो खरीद लेते हैं और उन का खूब प्रचार भी हो जाता है पर प्रशिक्षित तकनीशियनों व स्वास्थ्य अधिकारियों के अभाव में महंगी मशीनें पड़ीपड़ी कबाड़ हो जाती हैं.

आखिरकार इन आधुनिक उपकरणों का लाभ आम जनता को नहीं मिल पाता है. और ऐसी चिकित्सा सेवा पाने के लिए लोग मजबूरन इस उम्मीद के साथ, कि निजी अस्पतालों में उम्दा इलाज होगा, उधर का रुख करने लगते हैं, अपने बीमार परिजनों को भलाचंगा कर के घर लौटा ले जाने के लिए भले ही उन्हें कर्ज लेना पड़े या सबकुछ दांव पर लगाना पड़े. ऐसे में साफ है कि सरकारी अस्पताल ठूंठ बन कर रह जाते हैं. कर के रूप में जनता का पैसा जाया हो जाता है.

चिकित्सा का हब बना भारत

डेढ़दो दशकों से भारत विदेशी नागरिकों के लिए मैडिकल हब बन गया है. यहां यह देखा जाना जरूरी है कि आखिर भारत मैडिकल हब क्यों बना, खासतौर पर अंग प्रत्यारोपण का? एक कारण तो यही है कि विदेशी नागरिकों के लिए उन के देश की तुलना में भारत में इलाज का खर्च कहीं सस्ता है. इस सहूलियत की चर्चा पहले ही की जा चुकी है.

अंग प्रत्यारोपण के लिए भी विदेशी नागरिक भारत का रुख करना पसंद करते हैं. भारत के कुछ राज्य अलगअलग अंगों के प्रत्यारोपण के लिए दुनियाभर में जाने जाते हैं. मिसाल के तौर पर आंध्र प्रदेश हार्ट, किडनी, लीवर, लंग्स, गुजरात किडनी और लीवर, कर्नाटक हार्ट, होमोग्राफ्ट, किडनी, लीवर, लंग्स, पैनक्रियाज, केरल हाथ, घुटना, माइक्रोवैस्कुलर, चेन्नई कोर्निया, हाथ, हार्ट किडनी, लीवर, लंग्स के प्रत्यारोपण के लिए हर साल हजारों की तादाद में विदेशी भारत के इन शहरों में आते हैं.

हाल ही में किसी अमेरिकी अखबार में एक विज्ञापन आया था, जिस में कहा गया था कि हर 15 घंटे में एक न्यूयौर्क निवासी किसी न किसी अंग के डोनर का इंतजार करते हुए लंबी नींद सो जाता है. इस विज्ञापन की टैगलाइन थी- ‘बीकम एन और्गन डोनर.’ यह विज्ञापन अमेरिका के महज एक शहर में देखा गया है. जाहिर है कि इस विज्ञापन के जरिए स्थिति की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है. यही स्थिति है जो मानव अंग तस्करी को बढ़ावा देती है. केवल भारत में नहीं, बल्कि पूरे विश्व में ऐसा रैकेट काम कर रहा है.

वैसे भी, दुनियाभर के एक प्रतिशत धनकुबेरों के लिए अंग प्रत्यारोपण कोई समस्या नहीं है. मुंबई, बेंगलुरु, हैदराबाद और चेन्नई के अस्पतालों में इलाज कराते सऊदी शेखों को देखा जा सकता है. बताया जाता है कि वे भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में छुट्टियां मनाने के नाम पर आते हैं और अंग प्रत्यारोपण करवा कर लौट जाते हैं.

हालांकि मानव अंगों की तस्करी के मामले सामने आने पर भारत के अस्पतालों को विदेशियों के लिए अंग प्रत्यारोपण हब बनाने को ले कर विरोध भी कम नहीं होता रहा है. हमारे देश में चिकित्सा के क्षेत्र से जुड़ी बिरादरी के एक बड़े धड़े का यह भी मानना है कि जिस तादाद में विदेशी नागरिक अंग प्रत्यारोपण के लिए भारत आ रहे हैं, इसे देखते हुए ऐसा लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब डाक्टर मैडिकल काउंसिल औफ इंडिया ऐक्ट को धता बताते हुए देशी व विदेशी मरीजों के बीच अंतर करने लगेंगे. अगर ऐसा दिन आया तो देशी मरीज बगैर इलाज के मरने को मजबूर हो जाएंगे.

एयर एंबुलैंस की सुविधा

बेंगलरु की एयर रेस्क्यू, मेदांता की फ्लाइंग डौक्टर्स समेत देश में कई बड़े कौर्पोरेट एयर एंबुलैंस की सुविधा मोटे दामों पर उपलब्ध कराते हैं. इन हैलिकौप्टरों में आपातकालीन मैडिकल इक्विपमैंट समेत तमाम बुनियादी सुविधाएं होती हैं जो मरीजों को आम एंबुलैंस में मुहैया करवाई जाती हैं. फिलहाल दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, चेन्नई, कोलकाता व चंडीगढ़ आदि जगहों पर एयर एंबुलैंस की सुविधा मौजूद है. कौर्पोरेट चिकित्सा की महंगी व खर्चीली सुविधाएं, जाहिर है, संपन्न तबके वाले ही अफोर्ड कर सकते हैं.

सरकारी अस्पताल : नियम ज्यादा सुविधाएं कम

भारत में मात्र एकचौथाई उच्चवर्गीय, साधनसंपन्न तथा शहरी लोग हैं जिन के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान, राजीव गांधी सुपर स्पैशलिटी हौस्पिटल, संजय गांधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंस जैसे विश्व स्तरीय सुविधाओं से युक्त संस्थान हैं जहां लैप्रोस्कोपिक सर्जरी से ले कर डे केयर सर्जरी तक की सुविधाएं उपलब्ध हैं. इन के अतिरिक्त दूसरे कौर्पोरेट अस्पताल हैल्थ टूरिज्म तथा टैलीमैडिसिन जैसी आधुनिक सुविधाओं के भी विकल्प हैं. दूसरी ओर भारत में बसने वाले तीनचौथाई ग्रामीण तथा दूरदराज के लोगों के लिए उपलब्ध प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, कम्युनिटी हैल्थ सैंटर व जिला अस्पतालों में चिकित्सा की समुचित व्यवस्था तक नहीं है. वहां न तो डाक्टर हैं, न ही दवाइयां. उस पर भी सरकारी नियमों का ऐसा जाल है कि कई मरीज तो पेपरवर्क पूरा होतेहोते दम तोड़ देते हैं.

सरकारी रवैया तथा लालफीताशाही के कारण इस सैक्टर में कोई भी काम ढंग से नहीं हो पा रहा है. दूसरे देशों में प्रति हजार जनसंख्या पर अस्पतालों में 3.96 बैड हैं जबकि भारत में मात्र 0.7 ही हैं. करीब 10 लाख भारतीय प्रतिवर्ष इलाज के बिना ही मर जाते हैं तथा लगभग 7 करोड़ लोग विशेषज्ञ की सुविधा नहीं प्राप्त कर पाते क्योंकि 80 फीसदी विशेषज्ञ शहर में ही रहना पसंद करते हैं, केवल 3 फीसदी ही ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी सेवाएं प्रदान करते हैं. भारत में प्रति 10 लाख आबादी पर 74,150 कम्युनिटी हैल्थ सैंटर की जरूरत है लेकिन इस की संख्या आधे से भी कम है.

2025 तक भारत के अस्पतालों में करीब 17 लाख बैड की जरूरत होगी. पब्लिक सैक्टर द्वारा किए जाने वाले 860 मिलियन यूएस डौलर इनवैस्मैंट के बावजूद महज 15 से 20 फीसदी ही इस की आपूर्ति हो पाएगी. इनवैस्टमैंट कमीशन के अनुसार, पिछले 4 सालों के दौरान भारत की विकास दर 4 फीसदी की दर से बढ़ी है. उसी दर से भारतीयों की इनकम भी बढ़ी है. लेकिन इस के बावजूद बहुत बड़ी संख्या में लोगों को आधारभूत चिकित्सा सुविधाएं नहीं मिल रही हैं.

मानव अंग तस्करी

इन दिनों स्वास्थ्य सेवाओं पर मानव अंग की तस्करी का धब्बा भी लग रहा है. 1994 में मानव अंग के व्यापार को गैरकानूनी घोषित किया गया था. हालांकि पारिवारिक सदस्यों द्वारा अंग डोनेट करने पर किसी तरह की बंदिश नहीं है. इसी का लाभ उठा कर फर्जी दस्तावेज बना कर डोनर के रूप में ग्रामीण इलाकों के गरीबों को पैसों का लालच दे कर डोनर बना दिया जाता है. देशभर में कई गिरोह मानव अंग तस्करी के काम में लगे हुए हैं. इस काम में देश के कुछ निजी अस्पताल के डाक्टर से ले कर नर्सिंग स्टाफ तक की मिलीभगत होती है. स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, हमारे देश में हर साल 1-2 लाख किडनी की जरूरत होती है.

वहीं, पूरे देश में विभिन्न तरह के अंगों के प्रत्यारोपण के लिए डोनर का इंतजार करने वालों की एक बहुत ही लंबी सूची है. ज्यादातर मरीजों का यह इंतजार कभी खत्म न होने वाला इंतजार बन कर रह जाता है. इंतजार ही इंतजार में बहुत सारे मरीजों की मौत हो जाती है. उन्हें डोनर नहीं मिलता. लेकिन वहीं विदेशी मरीज वीजा ले कर भारत आते हैं और अंग प्रत्यारोपण करवा कर लौट जाते हैं. माना जाता है कि अंग तस्करी से जुड़े एक बहुत बड़े रैकेट के कारण ही यह संभव हो पाता है. दिल्ली के एक निजी अस्पताल में मानव अंग (किडनी) की तस्करी का भंडाफोड़ हो चुका है. थौमसन रायटर्स फाउंडेशन के अनुसार, मानव अंग की तस्करी के मामले में अस्पताल प्रशासन ने भी स्वीकार कर लिया है कि अस्पताल में अनजाने में पीडि़तों के शरीर से अंगों को निकाला गया.

चिकित्सा का व्यावसायीकरण

‘‘दमा के इलाज के लिए दिल्ली के एक कौर्पोरेट अस्पताल गया था. जेब में 50 हजार रुपए थे. मैं ने सोचा कि दमे के इलाज में एक अच्छे अस्पताल में इस से ज्यादा क्या खर्च होगा. इतने में अच्छा इलाज हो जाएगा और मैं ठीक भी हो जाऊंगा. वहां जाने के बाद मुझे आईसीयू में भरती कर दिया गया. तमाम तरह की महंगी जांचें होने लगीं. दूसरे दिन मुझे पता चला कि आईसीयू का प्रतिदिन का चार्ज काफी ज्यादा है जो मेरे बजट से काफी ज्यादा है. अपने चिकित्सक से कहा कि मैं अब अच्छा महसूस कर रहा हूं, मुझे जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया जाए. लेकिन मुझे 4-5 दिनों तक आईसीयू में ही रखा गया और ठीक 5वें दिन मुझ से 2.5 लाख रुपए जमा करने के लिए कहा गया. इतनी बड़ी रकम की मैं ने कल्पना तक नहीं की थी. बहुत विनती करने के बाद किसी तरह 1.5 लाख रुपए दे कर अस्पताल से मुक्त हुआ.’’

– एक भुक्तभोगी.

यह हाल हर जगह का भले न हो लेकिन 10 में से कम से कम 6 लोग इस तरह की समस्या से रूबरू हो चुके हैं. मरीज किसी अस्पताल में भरती तो अपनी मरजी से हो सकता है लेकिन वहां से बाहर निकल पाना उस के हाथ में नहीं होता. सोती हुई सरकार सब देखते हुए भी अनदेखी करती है क्योंकि बड़े अस्पतालों के कर्ताधर्ता पहले ही उन की आंखों पर रिश्वत की पट्टी बांध चुके होते हैं. चिकित्सा के व्यावसायीकरण ने इलाज का तरीका तथा स्टैंडर्ड चाहे जितना भी उम्दा क्यों न किया हो, किंतु इस में दो मत नहीं है कि स्वास्थ्यसेवा पूरी तरह व्यापार बन चुकी है. इसी मानसिकता के तहत अस्पताल खोले भी जा रहे हैं और इसी संस्कृति के तहत चलाए भी जा रहे हैं.

– डा. दीपक प्रकाश और साधना शाह

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