गांव तब और अब पैसा आया, हालात वही पिछले कुछ सालों की तुलना करें, तो गांवों में बहुत सारे बदलाव देखने को मिल रहे हैं. वहां तक सड़कें पहुंच गई हैं, भारी तादाद में मकान पक्के हो गए हैं, साइकिल की जगह मोटरसाइकिल का इस्तेमाल होने लगा है, खेती के काम ट्रैक्टर और दूसरी मशीनों से होने लगे हैं. यहां तक कि कुएं और नदी की जगह पीने का पानी हैंडपंप या वाटर सप्लाई से मिलने लगा है, बिजली तकरीबन हर गांव तक पहुंच गई है, रसोई गैस और बिजली से चलने वाले हीटर का इस्तेमाल खाना बनाने में होने लगा है,

खेती की जमीनों के बिकने से एकमुश्त पैसा भी मिलने लगा है, गांव के स्कूल पहले से बेहतर हो गए हैं, शादीब्याह और दूसरे मौकों पर खर्च और दिखावा बढ़ गया है. लेकिन इतने सारे बदलाव के बाद भी गांवों में आज भी गरीबी है, लोग सरकारी राशन लेने के लिए मजबूर हैं, बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ा नहीं पा रहे हैं और अपना इलाज अच्छे अस्पताल में नहीं करा पा रहे हैं. कुलमिला कर हालात परेशानी वाले हैं. किसान खेती से पैसा नहीं कमा पा रहे हैं. गांव के नौजवान रोजगार के लिए शहरों की तरफ उम्मीद से देख रहे हैं. जिन किसानों के ऊपर पूरे देश की जनता का पेट भरने की जिम्मेदारी है, वे खुद के खाने के लिए सरकारी राशन की दुकानों पर जाने लगे हैं. गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की तादाद में कोई कमी नहीं आई है. सवाल उठता है कि सड़क और बिजली पहुंचने के बाद भी गांवदेहात में गरीबी क्यों है? खेती से दूर भागते नौजवान इस मसले पर यादवेंद्र सिंह बताते हैं,

‘‘गांवों में रहने वाला नौजवान तबका खेतीबारी में कोई दिलचस्पी नहीं रखता है. वह छोटीमोटी नौकरी करना बेहतर समझता है. जो लोग खेतीकिसानी करते भी हैं, वह खेती के बारे में कोई खास जानकारी नहीं रखते हैं. ‘‘किस फसल की कब बोआई करनी है? किस मंडी में ज्यादा कीमत मिलती है? सरकार की क्या योजनाएं हैं? फसल को कब बेचा जाए, जिस से ज्यादा मुनाफा हो? ऐसे सवालों के जवाबों से वे अनजान हैं. ‘‘आज बहुत सारी जानकारियां मोबाइल फोन पर मौजूद हैं, पर गांव के लोग मोबाइल का इस्तेमाल गाना सुनने और वीडियो देखने में करते हैं. खेतीकिसानी के बारे में वे ज्यादा नहीं पढ़ते हैं. ‘‘देश में छोटे किसानों की तादाद ज्यादा है. बहुत सारे किसान एक हजार रुपए प्रति माह में भी अपनी जिंदगी की गुजरबसर करते दिखते हैं. ऐसे लोग हमेशा ही इस चाहत में रहते हैं कि सरकार की तरफ से कुछ न कुछ मिल जाए. पर सरकार के मदद करने के बाद भी गांव के लोगों की हालत इसलिए नहीं बदलती है, क्योंकि लोग काम नहीं करना चाहते हैं. वे अपनी जरूरतों को बढ़ा लेते हैं.

‘‘सरकार भी छोटे किसानों को फायदा देने के लिए बुनियादी ढांचा नहीं तैयार करती है. वह केवल छोटीमोटी मदद कर के किसानों को खुश रखना चाहती है, जिस से मदद की चाहत में किसान उसे वोट देते रहें. सरकारी मदद के मुकाबले महंगाई इस कदर बढ़ी है कि किसान की माली हालत जस की तस बनी हुई है.’’ रोजगार की कमी ऋतुजा सिंह बघेल कहती हैं, ‘‘गांव में पहले कुटीर उद्योगधंधे चलते थे. लोहे का काम वहां के रहने वाले लुहार करते थे. लकड़ी का काम भी गांव में होता था. मिट्टी के बरतन गांव में बनते थे. दोनापत्तल भी गांव में बनते थे. सूत कातने, ऊन का काम, अचार, पापड़ जैसी खाने की चीजें गांव में ही बनती थीं. ‘‘भले ही यह बड़ा रोजगार न रहा हो, पर गांव की जरूरतों को पूरा करता था. गांव का पैसा गांव में ही रह जाता था. जैसेजैसे ये काम बाजार के हवाले हो गए, गांव का पैसा बड़ी कंपनियों को जाने लगा. गांव में पैसा आने के बाद भी गरीबी दिखने लगी.

‘‘आज के समय में गांवों में होने वाले शादीब्याह से ले कर छोटेमोटे आयोजनों तक में बाहर का सामान और लोग आते हैं. गांव का पैसा इस तरह से बाहर के लोगों के पास जा रहा है. दिखावा बढ़ गया है. जिन के पास पैसा है, वे भी और जिन के पास पैसा नहीं है, वे भी कर्ज ले कर या जमीन बेच कर अपना काम अच्छे से अच्छा कर रहा है. ‘‘इसे देख कर शहरी लोगों को लगता है कि गांव अमीर हो गए हैं, पर गांव की यह अमीरी केवल हाईवे के किनारे से दिखती है. गांव के अंदर घुसते ही गांव की रहने वाली 80 फीसदी आबादी गरीबी में गुजरबसर करती दिखती है.’’ गरीब होते गांव भारत एक विकासशील देश है, जहां विकास की संभावनाएं बहुत ज्यादा हैं, लेकिन उस देश का विकास कैसे हो सकता है, जिस की आधे से ज्यादा आबादी गांव की हो और गरीबी से जूझ रही हो.

नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे पर आधारित नीति आयोग ने पहली रिपोर्ट जारी कर दी है, जिस के मुताबिक भारत के शहरों के बजाय गांवों में रहने वाले लोग चौगुना ज्यादा गरीब हैं. यह रिपोर्ट 2015-16 के स्वास्थ्य सर्वे पर बनी है. रिपोर्ट के मुताबिक, देश की कुल 25.1 फीसदी आबादी गरीबी की रेखा में आती है, वहीं गांवों के तकरीबन 37.75 फीसदी लोग गरीबी में आते हैं. शहरों की कुल आबादी का 8.81 फीसदी हिस्सा गरीबों में आता है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार सब से ज्यादा गरीबी वाला राज्य है, केरल सब से कम गरीबी वाला राज्य है. सब से ज्यादा गरीबी वाले राज्यों में मध्य प्रदेश चौथे नंबर पर है, वहीं झारखंड और उत्तर प्रदेश दूसरे और तीसरे नंबर पर हैं. सब से कम गरीबी वाले राज्य में गोवा और सिक्किम दूसरे और तीसरे नंबर पर हैं. तेंदुलकर समिति के मुताबिक,

गरीबी में कमी आई है और ग्रामीण आबादी में गरीबी घट कर 33.8 फीसदी से 25.7 फीसदी रह गई है और शहरों में गरीबी आबादी घट कर 29.8 फीसदी से 21.9 फीसदी रह गई है. यहां गौर करने की बात यह है कि गांव की ज्यादातर आबादी किसान तबके की है और खेती पर निर्भर है, लेकिन किसानों को उन की फसल के लिए न ही न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाता है और न ही उन्हें खेती से जुड़ी सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं, जिस से गांव का नौजवान तबका खेती नहीं करना चाहता है और शहरों की तरफ भागता है. गांवदेहात के बहुत से लोग आज भी पढ़ाईलिखाई से दूर हैं और ऐसे न जाने कितनी वजहें हैं, जिन के चलते गांव का एक बड़ा हिस्सा प्रभावित है. सरकार को चाहिए कि वह जमीनी लैवल पर ऐसे कदम उठाए, जिस से गरीबी कम हो सके. ‘गरीबी हटाओ’ का सच गांव की गरीबी के साथ अपनेअपने समय में सभी नेताओं ने राजनीति की. 70 के दशक में कांग्रेस नेता इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था. 80 के दशक में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन लागू करते समय यह कहा था कि इस से पिछड़ी जातियों को मजबूत किया जा सकेगा. साल 2004 में जब कांग्रेस की सरकार बनी,

तो गांव में हर घर को रोजगार देने के लिए ‘मनरेगा योजना’ चलाई गई. इस के बाद साल 2014 में भारतीय जनता पार्टी ने गांव में रहने वाले किसानों की आमदनी को दोगुना करने का वादा किया. मोदी सरकार बनने के 8 साल बाद भी किसानों और गांव के दूसरे लोगों की हालत जस की तस रही है. किसानों की मदद के लिए 500 रुपए प्रति माह की ‘किसान सम्मान निधि’ और सरकारी राशन की दुकान से राशन देना पड़ा. किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा दरकिनार हो गया. देश की आजादी के 74 साल से ज्यादा बीतने के बाद भी किसानों की हालत जस की तस है. इस का सब से बड़ा उदाहरण राजनीतिक दलों द्वारा किसानों की हालत को मुद्दा बनाया जाना है. अगर इंदिरा गांधी के समय में गरीबी दूर हो गई होती, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बात नहीं करनी पड़ी होती. धर्म और नशाखोरी गांव के लोग अब काम नहीं करना चाहते हैं. महंगी होने के बाद भी वे बाजार में बिकने वाली चीजों का इस्तेमाल करते हैं. इस से गांव की आमदनी खत्म हो रही है.

कामचोरी के साथसाथ गांव में बहुत तेजी से नशा करने की आदत फैल रही है. आज हर तरह का नशा गांव के लोग करने लगे हैं. इस में तंबाकू और शराब के साथसाथ गांजा, भांग और अफीम जैसा नशा भी शामिल है. नशे के चलते अपराध बढ़ रहे हैं. थाना और तहसील में खर्च बढ़ रहा है. कानूनी झगड़े में खेत और जमीनें बिक रही हैं, जो गांव के लोगों पर भारी पड़ रहा है. नशे का दूसरा असर यह है कि शरीर कमजोर होता जा रहा है. दवा और अस्पताल का खर्च बढ़ने लगा है. आज गांवदेहात में भी फास्ट फूड का चलन बढ़ने लगा है. इस से ब्लड प्रैशर और डायबटीज जैसी कई बीमारियां बढ़ रही हैं. गांवदेहात में जो पैसा है, वह किसी उत्पादक काम में नहीं लग रहा है. सब से पहले तो नशाखोरी, उस के बाद धर्म के काम जैसे पूजापाठ, चढ़ावा, दानदक्षिणा में फुजूल का खर्च होता है.

हाल के दिनों में गांवदेहात में भी मंदिरों की तादाद बढ़ गई है. लोग स्कूल और अस्पताल पर खर्च नहीं करते हैं, पर मंदिरों पर जरूर खर्च करते हैं. जब पैसा उत्पादक कामों पर खर्च नहीं होता, तो फायदे की उम्मीद कम हो जाती है. गांवदेहात के लोग अब मेहनत की जगह भाग्य पर भरोसा करने लगे हैं, जिस से ज्यादातर पैसा ऊपर वाले को खुश करने के लिए पंडित को चढ़ावा चढ़ाने में निकल जाता है. गांव छोड़ते लोग गांवदेहात की एक बड़ी आबादी शहरों की तरफ भाग रही है. हर शहर के आसपास ऐसे छोटेछोटे महल्ले बन गए हैं, जहां गांव जैसा ही माहौल देखने को मिलता है. इस से शहरों की व्यवस्था भी खराब होती जा रही है. गांव में अगर रोजीरोजगार का ढांचा तैयार होगा, तो गांव के लोगों का शहरों की तरफ भागना नहीं होगा. बहुत सारे ऐसे रोजगार हैं, जिन की जानकारी देने से गांव के लोगों का फायदा हो सकता है. खेतीबारी से जुड़े रोजगार बढ़ाने की जरूरत है.

अगर ऐसा नहीं किया गया, तो गांव के लोग और भी गरीब होते जाएंगे. शहर में रहने वाले और बिजनैस करने वाले लोगों के पास पैसा बढ़ता जाएगा. इस से गरीबी और अमीरी के बीच की खाई चौड़ी होती जाएगी. गांवदेहात में रोजगार होने से लोगों का शहरों की तरफ भागना रुकेगा. गांव का पैसा गांव में रहेगा, तो तरक्की केवल सड़क तक नहीं दिखेगी, बल्कि गांव के अंदर भी बदलाव दिखेगा. इस के लिए गांव के लोगों को काम करना पड़ेगा, उन्हें नशाखोरी, कामचोरी और धार्मिक अंधविश्वास से दूर होना होगा. नौजवानों की पढ़ाईलिखाई रोजगार देने वाली हो, वह गांव के काम आए, उस तरह की योजना बनाई जाए. भारत की आबादी का सब से बड़ा हिस्सा गांव में रहता है. ऐसे में गांव गरीब रहें और देश तरक्की करे, ऐसा मुमकिन नहीं है. देश की तरक्की गांव के बिना नहीं हो सकती. गांवों को साथ ले कर चलना पड़ेगा, तभी पूरा देश खुशहाल होगा. सरकारी मदद किसी समस्या का समाधान नहीं है. योजना बना कर गांव का रोजगारपरक विकास ही समस्या का एकमात्र हल है.

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