Family Story : शोभा अपने भैया शोभन की बात सुन कर एकदम से हैरान रह गई. पापा को भैया यह क्या कह गए कि 9वीं फेल वे क्या जानें कि पढ़ाई और डिगरी क्या चीज होती है.

पापा 9वीं फेल हैं या पास हैं, यह तो बाद की बात है, पर उन्होंने जो इतना बड़ा कारोबार अपने बूते खड़ा किया है, क्या वह ऐसे ही कर दिया है? क्या वे नहीं देख और जान रहे हैं कि न जाने कितने नौजवान मैडिकल और इंजीनियरिंग की बड़ीबड़ी डिगरियां लिए सड़कों पर धूल फांक रहे हैं?

आंगन में खड़े शोभा के पापा जगदीश एकदम से जड़ हो कर आसमान की तरफ देखते रह गए. उन्हें ऐसा लग रहा था कि उन्होंने जोकुछ पाया है, क्या वह सब बेकार गया है? उन्होंने जोकुछ बिना किसी डिगरी के हासिल किया है, क्या वह यों ही भाग्य भरोसे मिल गया है?

नहीं, यह संयोग नहीं है कि जगदीश शहर के जानेमाने कारोबारी हैं. वे शहर की एक मशहूर साड़ी दुकान के मालिक हैं, जिन के तहत स्टाफ के 20-20 लोग खटते हैं… और भैया उन्हें 9वीं फेल बता रहे हैं.

9वीं फेल… मतलब क्या है? यही न कि पापा कमअक्ल हैं और उन की समाज में कोई इज्जत नहीं है?

‘‘भैया, यह आप क्या कह रहे हैं…? क्या आप को पापा के बारे में जानकारी नहीं है कि गांव का स्कूल बनवाने में इन का कितना बड़ा योगदान है? स्कूल की जमीन खरीदने से ले कर उस की इमारत बनवाने तक में इन्होंने पैसे से भरपूर मदद की है…’’

शोभा अपने भैया शोभन को जैसे झकझोर रही थी, ‘‘इस शहर में न जाने कितनी ही सभासोसाइटियों के वे सदस्य हैं. ठीक है कि ज्यादा बिजी होने की वजह से वे हर जगह नहीं जा पाते हैं, लेकिन पापा ने फर्श से अर्श तक का एक लंबा फासला तय किया है और तुम इन को कह रहे हो कि ये 9वीं फेल हैं. क्या डिगरियों से ही अक्ल का वास्ता रहता है?’’

‘‘शोभा, तुम अपना ज्यादा ज्ञान मत झाड़ो…’’ शोभन अपनी बाइक स्टार्ट करते हुए बोला, ‘‘जो सच है, वह सच है. मैं ने क्या गलत कहा है?’’

‘‘हां, तुम गलत कह रहे हो. जरा, सुनो तो…’’

मगर, तब तक शोभन अपनी बाइक ले कर जा चुका था.

शोभा की मां शारदा रसोईघर में थीं. उन्होंने यह बात सुनी ही नहीं या फिर शायद अनसुनी कर दी. उन्हें हमेशा ऐसा लगता है कि शोभन कभी गलत नहीं कह सकता. बेटे गलत नहीं हो सकते.

आज रविवार को साप्ताहिक बंदी की वजह से जगदीश घर पर ही थे. उन्हें कहीं जाना था. शायद किसी फंक्शन में. उस के लिए उन्होंने बढि़या कपड़े भी निकाले थे, मगर अब उन का मूड खराब हो चुका था. वे कुरतापाजामा पहन कर बाहर निकल गए. अब शायद वे शाम की सैर करने के लिए पार्क जाना चाह रहे थे.

शोभा शुरू से ही ऐसा देखती आई है. जब भी पापा तनाव में होते हैं, तब वे या तो पार्क में चले जाते हैं या फिर गंगा किनारे टहलने निकल जाते हैं.

‘‘पापा, आप रुकिए, मैं चाय बना कर लाती हूं…’’ शोभा जगदीश से मनुहार करते हुए बोली, ‘‘आप के साथ मैं भी चाय ले लूंगी. आप से मुझे बहुत सारी बातें करनी हैं.’’

मगर जब तक शोभा चाय बना कर लाती, तब तक जगदीश कपड़े पहन कर निकल चुके थे.

शोभा ने चाय के दोनों प्याले वहीं रख दिए. अब चाय क्या पीना. पापा तो निकल चुके हैं. उन्हें भैया की बातों से गहरी चोट लगी थी. भैया ने उन पर जो आरोप लगाया, वह क्या सही है? क्या सिर्फ डिगरी ही कामयाबी का पैमाना है?

भैया यह जानते हैं, फिर भी वे बोल कर निकल गए. ठीक है कि पापा कुछ पुराने जमाने के हैं, जींसटीशर्ट की जगह साधारण पैंटशर्ट पहनते हैं, मगर वे किसी भी मामले में किसी से कम हैं क्या, जो उन्हें अनदेखा किया जाए?

इधर शोभा अपने भैया शोभन की हरकतों को देख और महसूस कर रही थी कि पापा की बातें और बरताव उन्हें अच्छा नहीं लगता. उन्हें लगता है कि पापा किसी सरकारी औफिस के बड़े अफसर होते, तो कितना अच्छा रहता. पढ़ेलिखे लोगों का कुछ अलग ही रुतबा होता है. लेकिन इतनी बड़ी दुकान चलाने के लिए भी तो पढ़ाईलिखाई जरूरी है.

शोभन को पापा से हजार शिकायतें थीं… जैसे पापा की बातों में गंवई पुट है. उन में वह आत्मविश्वास नहीं है, जो किसी स्मार्ट इनसान में होना चाहिए. उन के कपड़े पहनने और चलने का ढंग भी ठीक नहीं है. पता नहीं, लोग उन्हें कैसे झेल लेते हैं. पहली ही नजर में दिख जाता है कि वे 9वीं फेल हैं.

अपने पापा की पढ़ाई के प्रति शोभन की हीनभावना कोई एक दिन में नहीं उपजी थी. उसे याद है, जब उस ने 12वीं पास करने के बाद एक कालेज में फार्म भरा था, तब पापा उस के साथ गए थे.

वहां दिए गए फार्म के एक कौलम में जब पापा ने 8वीं पास लिखा था, तब कालेज का बाबू मुसकरा कर बोला था, ‘चलो, अच्छा है. बाप 8वीं पास है, तो बेटा 12वीं पास कर गया. सबकुछ ठीकठाक रहा, तो कालेज भी पास कर ही जाएगा.’

तब शोभन खुद कमउम्र का था, इसलिए उस क्लर्क को वह जवाब नहीं दे पाया था, मगर अब तो वह सबकुछ देखसमझ रहा है. इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद वह पुणे से मैनेजमैंट की पढ़ाई कर रहा है.

शोभा सोच रही थी कि आजकल की पढ़ाई में कितना खर्च है, इसे तो शोभन भैया समझ ही रहे होंगे. उन के पीछे वह भी तो पढ़ाई कर रही है. अपनी पढ़ाई के वक्त वह भी पापा के साथ कालेज गई थी. पापा की बड़ी इच्छा थी कि शोभा मैडिकल की पढ़ाई करे.

‘‘देख रही हो न कि पटना का माहौल कितना खराब है. लोगों की सेहत भी अच्छी नहीं रहती है. बुढ़ापे में तो और भी दिक्कत होती है. तुम डाक्टर बनोगी, तो मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी. नहीं तो डाक्टरों के चोंचले और नखरों से माथा खराब रहता है,’’ जगदीश ने शोभा से कहा था.

शोभा का सिर दर्द करने लगा था. उस ने टैलीविजन औन कर दिया. वहां भी वही रूटीन टाइप की चीजें. मोबाइल फोन में भी उस का मन नहीं लगा. वह बिस्तर पर लेट गई और आंखें बंद कर लीं.

जबजब शोभा घर आती है, तो एक चक्कर वह गांव का भी लगा लेती है. वहां उस के बड़े पापा और चाचा रहते हैं. वहां उसे कोई दिक्कत नहीं होती. आराम से वह खेतबागानों में घूमती है, तो उसे बड़ा अच्छा लगता है.

ठीक है कि गांव में बड़ी गंदगी है, मगर इन शहरों में क्या कम गंदगी है. बड़ी सड़कों को छोड़ कर जरा गलियों में घुसने से ही शहर की चमकदमक और हकीकत का पता चल जाता है.

गांव में एक ठहरी हुई सी जिंदगी जरूर है, मगर उस में कुछ तो अपनापन है ही. ठीक है कि वहां गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी भी है. सड़कें टूटीफूटी और गलियां काले कीचड़ से बजबजाती बदबू छोड़ती हैं. लेकिन वहां के घर कोई माचिस के डब्बों की तरह नहीं हैं, जो आदमी उसांस भरने लगे. ज्यादातर लोग वहां भी ऊबे हुए से हैं, फिर भी लोगों के चेहरे पर एक निश्चिंतता सी है. कोई भागादौड़ी नहीं है.

चाचा शोभा से हंस कर कहते, ‘‘तुम को गांव बहुत अच्छा लगता है. चलो, अच्छा है. पर गांव में डाक्टर की कमी है. तुम यहीं आ कर अपनी प्रैक्टिस करना. जगदीश तो गांव छोड़ कर पटना भाग गया. तुम उस की कमी पूरी कर देना.’’

‘‘तुम भी क्या बात करते हो. शादी के बाद शोभा अपने ससुराल जाएगी कि यहां रहेगी…’’ बड़े ताऊजी हंस कर कहते, ‘‘वैसे, शोभा बेटी जहां भी जाएगी, वहां की शोभा ही बढ़ाएगी. इस के जन्म के साथ ही मंझले के कारोबार में इजाफा हुआ था. तभी तो उस ने अपनी दुकान का नाम ‘शोभा साड़ी शौप’ रखा है. और तुम देखना, वह इस की शादी भी किसी बड़े शहर में ही करेगा.’’

‘‘मगर, शोभा तो खेत और बागानों में ही घूम कर खुश होती है. कहती है कि यहां बड़ी शांति है. उसे नहीं पता कि यहां धर्म और जाति में गांव कितना बंटा हुआ है. बहुत राजनीति है गांव में,’’ चाचा शोभा से कहते.

‘‘शहर भी धर्म और जाति में बंटे हुए हैं चाचाजी…’’ शोभा हंस कर कहती, ‘‘आप ने वहां के अंदरूनी हालात को नहीं देखा है न. बस, उस के ऊपर प्रशासनिक अनुशासन या डर का एक मुलम्मा चढ़ा हुआ है, इसलिए वह दिखाई नहीं देता. और वहां के राजनीतिक हालात के बारे में तो पूछिए ही मत.’’

‘‘मगर, वहां कोई एकदूसरे के काम में दखलअंदाजी नहीं करता,’’ चाचा बोले, ‘‘तभी तो जगदीश अपने कारोबार में कामयाब हुआ है.’’

‘‘सो तो है ही. बाबूजी के मरने के बाद हम अनाथ हो गए थे. उस समय जगदीश 8वीं क्लास में पढ़ता था. अब घर कैसे चले, सो उस की चिंता हमें खाने लगी थी. मैं तो निरा बेवकूफ ठहरा. खेतीबारी करने के अलावा कुछ जानता ही नहीं था.

‘‘ऐसे में जगदीश ने हिम्मत कर के दुर्गापूजा के वक्त पंडाल के पास ही एक खिलौने की दुकान लगा ली थी. उस में उसे कुछ मुनाफा हुआ, तो उस ने दीवाली में पटाकों की दुकान खोल ली.

‘‘इस तरह वह छोटेछोटे काम करता रह गया. इस चक्कर में वह मुश्किल से 8वीं जमात ही पास कर पाया था. मगर उसे दुकानदारी कर कमाई करने का जो भूत सवार हुआ, तो उस में लगता ही गया.

‘‘बाद में उस ने स्कूल के पास ही एक स्टेशनरी की दुकान खोल ली थी. इस का असर यह हुआ कि उस की दुकान तो चल गई, लेकिन वह 9वीं जमात पास नहीं कर पाया. मगर लेनदेन में वह काफी कुशल था, सो महाजन भी उसे रुपए देने में आनाकानी नहीं करते थे.

‘‘आगे चल कर जब वह पटना से माल उठाने लगा, तो काम और भी चल निकला. देखतेदेखते उस की दुकान बहुत बढ़ गई थी, लेकिन उस की पढ़ाई चौपट हो गई थी,‘‘ ताऊजी ने कहा.

‘‘लेकिन, जगदीश ने मेरी पढ़ाई पर बहुत ध्यान दिया था…’’ चाचा बोले, ‘‘उस ने मुझे कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी. वह तो मेरा पढ़ाई में मन नहीं लगता था, इसलिए ज्यादा पढ़ नहीं पाया. फिर भी उस के दबाव की वजह से मैं मैट्रिक पास कर गया था.

‘‘पढ़ाई के लिए जगदीश की जो लगन थी, उसी ने शायद तुम लोगों को पढ़ाने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी है. उसे लगता था कि नई पीढ़ी का पढ़ालिखा होना बहुत जरूरी है, इसलिए वह तुम को और शोभन को पढ़ाने में कोई कमी नहीं कर रहा था.’’

‘‘सो तो है ही चाचाजी…’’ शोभा गर्व से बोली, ‘‘हमारी पढ़ाई के लिए पापा हमेशा सजग रहे. हम ने जो पढ़ना और बनना चाहा, उस के लिए वे हमेशा तैयार रहे. कभी कोई कमी नहीं होने दी.

‘‘शोभन भैया इंजीनियरिंग की तैयारी के लिए कोटा जाना चाहते थे. सो, वहां भी उन्हें भेज कर पूरी तैयारी कराई. खर्च की तो कभी उन्होंने परवाह ही नहीं की.’’

‘‘तुम तो सब जानती हो शोभा बेटी. अब तुम्हें क्या बताना…’’ ताऊजी बोले.

मगर आज वही शोभन भैया पापा को क्या कह गए. क्या वे नहीं जानते कि पापा ने यहां तक पहुंचने के लिए कितनी मेहनत की है. ठीक है कि वे ज्यादा पढ़ेलिखे नहीं हैं, मगर इस के लिए क्या वे ही कुसूरवार हैं? क्या उन दिनों के हालात कुसूरवार नहीं हैं, जिन की वजह से वे आगे पढ़ नहीं पाए थे?

फिर भी पापा ने थोड़ी सी पूंजी से अपना कारोबार गांव में शुरू किया था. सीजनल टाइम में वे पटना से अपने गांव में सामान लाते थे और बेचते थे. इस के लिए उन्हें गांव के महाजन से सूद पर पैसा लेना पड़ता था.

बाद में पापा सीजनल धंधों को दरकिनार कर सिर्फ कपड़े के कारोबार में हाथ आजमाने लगे थे. कपड़ों की पहचान और ग्राहकों की पसंद को ध्यान में रख कर उन्होंने अपनी दुकान को खूब आगे बढ़ा लिया था.

धीरेधीरे पापा को पटना आतेजाते वहां के हाटबाजार का भी हाल मालूम चल गया था. तब उन्हें लगा था कि अगर वे पटना में अपनी एक दुकान खोल लें, तो उन्हें अपने कारोबार में अच्छा फायदा हो सकता है.

एक कारोबारी को जब रुपए की जरूरत हुई, तो उसे अपनी दुकान बेचनी पड़ी. तब पापा ने अपनी जमापूंजी लगा कर वह दुकान खरीद ली थी. दुकान का नाम भी उन्होंने शोभा के नाम पर ‘शोभा साड़ी शौप’ रखा था.

पापा का मानना था कि जैसे ही शोभा का जन्म हुआ, तो उन के कारोबार में तरक्की हुई थी और वे इस दुकान को खरीदने में कामयाब हुए थे. फिर तो धीरेधीरे वे कारोबार को बढ़ाते ही चले गए थे. जिस के बाद सब से पहले किराए का मकान ले कर अपने परिवार को बुलाया.

शोभा उस समय छोटी सी प्यारी बच्ची थी. पूरे प्यार के साथ उन्होंने उस का दाखिला एक नर्सरी स्कूल में कराया था. शोभन भैया उन दिनों गांव के एक सरकारी स्कूल में दूसरी क्लास में पढ़ते थे. फिर काफी भागदौड़ के बाद एक अच्छे स्कूल में शोभन का दाखिला मोटा डोनेशन दे कर हुआ था.

एक तो भैया पहले ये ही फुजूलखर्च थे, उन की पढ़ाई भी महंगी होती थी. उन के लिए पापा ने ट्यूशनें रखीं. पढ़ाई में औसत होने के चलते उन की पढ़ाई पर खर्च भी खूब होता था. इस सब के बावजूद पापा ने कभी खर्चों में नानुकर नहीं की. समय निकाल कर वे शोभन की किताबकौपियां देख लिया करते थे.

उधर उन की दुकान चल निकली थी. अब पापा एक मकान भी खरीद चुके थे और दुकान भी बड़ी हो चुकी थी. दुकान में 5-5 नौकर थे, जिन्हें वे अपना स्टाफ कहते थे.

समय किस रफ्तार से आगे बढ़ता है. गांवघर कब के पीछे छूट गए. शोभा पढ़ाई में होशियार तो थी ही, पापा की हमेशा से यही इच्छा रही थी कि वह डाक्टर बने, तो इस दिशा में उस ने अपनी कोशिश जारी रखी.

यही वजह थी कि शोभा खुद अच्छी पढ़ाई कर मैडिकल का ऐंट्रैंस ऐग्जाम पास कर मुजफ्फरपुर के एक सरकारी मैडिकल कालेज में पढ़ाई कर रही थी, जबकि शोभन कोलकाता के एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज में बीटैक की पढ़ाई कर रहा था.

इस के लिए शोभन ने कोटा में 2 साल रह कर आईआईटी के लिए कोचिंग ली थी. अभी तो खैर वह पुणे में एमबीए की पढ़ाई कर रहा है.

इस बीच पापा को कभी इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि वे 9वीं फेल हैं. और आज शोभन उन पर ताना कस रहा है कि वे कुछ नहीं जानते.

अचानक शोभा को कुछ खटका सा हुआ, तो वह जाग गई.

‘‘अरे, तुम इतनी जल्दी सो गई?’’ शोभन उस से पूछ रहा था, ‘‘अभी तो 9 ही बजे हैं. तबीयत ठीक नहीं है क्या तुम्हारी? छुट्टियों में आई हो, तो कहीं घूमनेटहलने जाना चाहिए.

‘‘बाजार की रंगीनियों की तरफ तो देखो. चारों तरफ साफसफाई है. दुकानें कितनी सजीधजी हैं. चौकचौराहों पर पंडाल लगे हैं. सड़कें रोशनियों से जगमगा रही हैं. बाहर लोगों के हुजूम के हुजूम खरीदारी के लिए निकले हुए हैं. कितना भला और अच्छा दिख रहा है शहर.’’

‘‘वह तो ठीक है भैया कि सबकुछ अच्छाभला दिख रहा है, मगर तुम ने पापा को जो कहा, वह अच्छा था क्या? पापा खुद पढ़ नहीं पाए, इस के पीछे की वजह को हमें जानना चाहिए कि नहीं? तुम ने उन्हें 9वीं फेल कहा. उन को इस बात से कितनी चोट लगी होगी, इस का अंदाजा तुम्हें है क्या?’’

‘‘तुम ने ठीक कहा शोभा…’’ शोभन बोला, ‘‘पढ़ाई के लिए कीमत चुकानी होती है और जब पैसा न हो, तो कोई कैसे पढ़ सकता है? अब देखो न, मैं अविनाश के घर गया था. उस ने अपनी बीटैक की पढ़ाई छोड़ दी है.

‘‘वह कह रहा था कि उस के पापा के रैस्टोरैंट में जबरदस्त घाटा हुआ है, जिस से उन पर भारी कर्ज है. उन्होंने अपने कई स्टाफ की छुट्टी कर दी है. और वह बता रहा था कि अब वह पापा के रैस्टोरैंट में ही उन की मदद करेगा.’’

‘‘शायद तुम नहीं जानते कि हमारे पापा के साथ भी ऐसे हालात कई बार हो चुके हैं, लेकिन उन्होंने हमारी पढ़ाई छुड़वाने की बात कभी नहीं की. तुम ने उन पर इतना बड़ा आरोप लगा दिया. कितने दुखी होंगे वे, इस का अंदाजा है तुम्हें?’’ शोभा बोली.

‘‘सौरी शोभा, अब तुम मेरा अपराधबोध और ज्यादा न बढ़ाओ. मैं पापा से माफी मांग लूंगा.’’

‘‘तो यह काम अभी होना चाहिए,’’ शोभा ने कहा.

‘‘इस की कोई जरूरत नहीं है…’’ अचानक पापा अंदर आए, ‘‘मैं तो अपने अंदर के अधूरेपन को तुम्हारी पढ़ाई से पूरा कर रहा हूं. तुम खुश रहो, मुझे कुछ और नहीं चाहिए.’’

शोभन सिर झुकाए खड़ा था.

पापा शोभा को अपने गले से लगाते हुए बोले, ‘‘मेरी छोटी सी गुडि़या अब बड़ी और समझदार हो गई है.’’

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