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शेखर प्यार से छेड़ने लगे, ‘‘चलो, अब तो हमारी जुदाई का गम न झेलना पड़ेगा?’’

शेखर बहुत रोमांटिक मूड में थे. मैं भी फागुनी बयार की तरह बही जा रही थी. पूरे मन से शेखर की बांहों में समा गई. कब रात बीती पता ही नहीं चला.

पड़ोस के घर बजे शंख से नींद खुली. 5 बज गए थे. जल्दी से उठ कर नहा कर नाश्ते की तैयारी में जुट गई. इन्हें भी आज जाना था. मुझे कल सवेरे निकलना था. अत: जल्दीजल्दी काम निबटाने लगी. महीने भर का राशन आया पड़ा था. उसे जल्दीजल्दी डब्बों में भरने लगी. मैं सोच रही थी मेरे जाने के बाद किसी को सामान ढूंढ़ने में दिक्कत न हो.

तभी अम्मांजी किसी काम से किचन में आ गईं. मुझे ये सब करते देख बोलीं,

‘‘बहू, तुम यह सब रहने दो. मैं कामवाली शांता से कह कर भरवा दूंगी… तुम मां के यहां जाने

की खुशी में, सूजी में बेसन और अरहर में चना दाल मिला दोगी. यह काम तसल्ली से करने के होते हैं.’’

मेरे मन में जो खुशी नृत्य कर रही थी उसे विराम सा लगा. बिना कुछ कहे मैं उठ खड़ी हुई. मन में सोचने लगी कि अब तो यही मेरा घर है…कैसे इन सब को विश्वास दिलाऊं.

अपने कमरे में जा कर शेखर ने जो समान इधरउधर फैलाया था उसे यथास्थान रखने लगी. शेखर नहाने गए हुए थे.

अचानक दिमाग में आया कि पापा के रिटायरमैंट पर कोई उपहार देना बनता है. छोटी बहन रेनू और भाई राजू को भी बड़ी होने के नाते कुछ उपहार देना पड़ेगा. सोचा शेखर नहा कर आ जाएं तो उन से सलाह करती हूं. वैसे उन के जाने में 1 घंटा ही शेष था. वे मुझे उपहारों की शौपिंग के लिए अपना साथ तो दे नहीं पाएंगे, हां क्या देना है, इस की सलाह जरूर दे देंगे. मैं आतुरता से उन का इंतजार करने लगी.

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शेखर नहा कर निकले तो बहुत जल्दीजल्दी तैयार होने लगे. उन की जल्दबाजी देख कर मुझे समझ नहीं आ रहा था अपनी बात कैसे शुरू करूं? जैसे ही वे तैयार हुए मैं ने झट से अपनी बात उन के सामने रखीं.

सुन कर झल्ला उठे. बोले, ‘‘अरे मीनू, तुम भी मेरे निकलने के समय किन पचड़ों में डाल रही हो? इस समय मैं उपहार देनेलेने की बातें सुनने के मूड में नहीं हूं. तुम जानो और तुम्हारे पापा का रिटायरमैंट,’’ कह कर अपना पल्ला झाड़ उठ खड़े हुए और अम्मां के कमरे में चले गए. जातेजाते अपना सूटकेस भी ले गए यानी वहीं से विदा हो जाएंगे.

मैं जल्दी से नाश्ता लगा कर ले गई. मेरे मन के उत्साह पर शेखर की बातों ने पानी सा डाल दिया था. मुझे लगा जाते समय शेखर मुझे कुछ रुपए अवश्य दे जाएंगे पर नाश्ता कर के हटे ही थे कि गाड़ी आ गई, ‘‘अच्छा, बाय मीनू,’’ कह कर गाड़ी में जा बैठे.

मैं देखती ही रह गई. परेशान सी खड़ी रह गई. सोचने लगी उपहारों के लिए पैसे कहां से लाऊं… जिस पर हक था वह तो अनदेखा कर चला गया. अम्मांपापाजी से रुपए मांगने में लज्जा और स्वाभिमान दीवार बन गया.

अचानक याद आया विदाई के समय कनाडा वाली बुआ ने कुछ नोट हाथ में थमाए थे, जिन्हें उस ने बिना देखे संदूक के नीचे तल में डाल दिए थे. जल्दी से कमरे में जा कर संदूक की तलाशी लेने लगी. एक साड़ी को झाड़ने पर कुछ नोट गिरे. ऐसे लगा कोई कुबेर का खजाना हाथ लग गया. लेकिन गिने तो फिर निराशा ने घेर लिया.

केवल 3000 रुपए ही थे. उन में अच्छे उपहार आना कठिन था. रवि भैया से हिम्मत कर के साथ चलने के लिए मिन्नत की तो वे मान तो गए पर बोले, ‘‘भाभी आप का बजट कितना है? उसी अनुसार दुकान पर ले चलता हूं.’’

मैं ने जब धीमी आवाज में बताया कि 3000 रुपए हैं तो रवि भैया ने व्यंग्य में मुसकरा कर कहा, ‘‘भाभी फिर तो आप पटरी वालों से ही खरीदारी कर लें.’’

मुझे कुछ पटरी वाले आवाज देने लगे तो मैं कुछ कपड़े देखने लगी. कपड़े वास्तव में कामचलाऊ थे. जींस, टौप वगैरह सभी कुछ था.

रेनू और छोटे भाई राजू के लिए सस्ते से कपड़े खरीद कर पापा और मम्मी के लिए कुछ ठीकठाक ही लेना चाहती थी. किसी तरह मां के लिए एक सस्ती सी साड़ी और पापा के लिए एक शौल ले कर घर लौट आई. औटो के पैसे रवि भैया ने ही दिए.

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इतना घटिया सामान खरीदा. फिर रवि को कुछ खिलानापिलाना तो दूर उलटे औटो तक के पैसे ले लिए. मैं शर्म से गड़ी जा रही थी. कैसे बताती अपनी पसंद के बारे में. कभीकभी इंसान हालात के हाथों मजबूर सा हो जाता है.

अगले दिन रवि भैया ने मुझे सहारनपुर जाने वाली बस में बैठा दिया. अम्मां ने एक मिठाई का डब्बा दे कर अपना कर्त्तव्य निभा दिया.

शादी के बाद पहली बार अकेली मायके जा रही थी. दिल खुशी से धड़क रहा था.

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