एक फौजी के परिवार को किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है, इस का अंदाजा मुझे उस वक्त ही हुआ. टीवी पर युद्ध के हृदयविदारक दृश्य और फौजियों की निर्जीव देहें, उन के परिजनों का करुण रुदन देख कर मैं विचलित हो जाती. मन तरहतरह की आशंकाओं से घिरा रहता. सारा वक्त समर की कुशलता की प्रार्थना करते ही बीतता.
ऐसे में मैं एक दिन वीरां के साथ बैठी थी कि समर की बटालियन से फोन आया. समर को लापता कर दिया गया था. माना जा रहा था कि उसे दुश्मन देश के सैनिकों ने बंदी बना लिया था.
कुछ देर के लिए तो हम सब जड़ रह गए. फिर मन की पीड़ा आंखों के रास्ते आंसू बन कर बह निकली. वहां समर न जाने कितनी यातनाएं झेल रहा था और यहां...खुद को कितना बेबस और लाचार महसूस कर रहे थे हम.
युद्ध की समाप्ति पर दुश्मन देश ने अपने पास युद्धबंदी होने की बात पर साफ इनकार कर दिया. हमारी कोई कोशिश काम न आई. हम जहां भी मदद की गुहार लगाते, हमें आश्वासनों के अलावा कुछ न मिलता. उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आ रही थी.
वक्त गुजरता गया. इतना सब होने के बाद भी जिंदगी रुकी नहीं. वाकई यह बड़ी निर्मोही होती है. जीवन तो पुराने ढर्रे पर लौट आया लेकिन मेरा मन मर चुका था. वीरां और मैं अब भी साथ ही कालिज जाते, मगर समर अपने साथ हमारी हंसीखुशी सब ले गया. बस जीना था...तो सांस ले रहे थे, ऐसे ही...निरुद्देश्य. जीवन बस, एक शून्य भर रह गया था.
फिर हम दोनों ने साथ ही बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन का कोर्स भी कर लिया. तब एक दिन मम्मी ने मुझे अनिरुद्ध की तसवीर दिखाई.
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