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लेखक- अनिल के. माथुर

‘‘उफ, इसे भी अभी ही बजना था,’’ आटा सने हाथों से ही मधु ने दरवाजा खोला. सामने मणिकांत खड़ा था, जो उसी के कालिज में लाइब्रेरी का चपरासी था.

‘‘तुम…’’ बात अधूरी छोड़ मधु रोते विशू को उठाने लपकी मगर अपने आटा सने हाथ देख कर ठिठक गई. परिस्थिति को भांपते हुए मणिकांत ने अपने हाथ की पुस्तकें नीचे रखीं और विशू को गोद में उठा कर चुप कराने लगा.

‘‘मैं अभी आई,’’ कह कर मधु हाथ धोने रसोई में चली गई. एक मिनट बाद ही तौलिए से हाथ पोंछते हुए वह फिर कमरे में आई और मणिकांत की गोद से विशू को ले लिया.

‘‘मैडम, आप ये पुस्तकें लाइब्रेरी में ही भूल आई थीं,’’ पुस्तकों की ओर इशारा करते हुए मणिकांत ने कुछ इस तरह से कहा मानो वह अपने आने के मकसद को जाहिर कर रहा हो.

मधु को याद आया कि पुस्तकें ढूंढ़ कर जब वह उन्हें लाइब्रेरियन से अपने नाम इश्यू करवा रही थी तभी उस का मोबाइल बज उठा था. लाइब्रेरी की शांति भंग न हो इसलिए वह बात करती हुई बाहर आ गई थी. पति सुमित का फोन था. वह आफिस के कुछ महत्त्वपूर्ण लोगों को डिनर पर ला रहे थे. मधु को जल्दी

घर पहुंचना था. जल्दबाजी में वह अंदर से पुस्तकें लेना भूल गई और सीधे घर आ गई थी.

‘‘अरे, यह तो मैं कल ले लेती, पर तुम्हें मेरे घर का पता कैसे चला?’’

‘‘जहां चाह वहां राह. किसी से पूछ लिया था. लगता है आप खाना बना रही हैं. बच्चे को तब तक मैं रख लेता हूं,’’ मणिकांत ने विशू को गोद में लेने के लिए दोनों हाथ आगे बढ़ाए तो मधु पीछे हट गई.

‘‘नहीं…नहीं, मैं सब कर लूंगी. मेरा तो यह रोज का काम है. तुम जाओ,’’ दरवाजा बंद कर वह विशू को सुलाने का प्रयास करने लगी. विशू को थपकी देते हाथ मानो उस के दिमाग को भी थपथपा रहे थे.

उस की जिंदगी कितनी भागम- भाग भरी हो गई है. बाई तो बस, बंधाबंधाया काम करती है, बाकी सब तो उसे ही देखना पड़ता है. सुबह जल्दी उठ कर लंच पैक कर सुमित को आफिस रवाना करना, विशू को संभालना, खुद तैयार होना, विशू को रास्ते में क्रेच छोड़ना, कालिज पहुंचना, लौटते समय विशू को लेना, घर पहुंच कर सुबह की बिखरी गृहस्थी समेटना और उबासियां लेते हुए सुमित का इंतजार करना.

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थकेहारे सुमित रात को कभी 10 तो कभी 11 बजे लौटते. कभी खाए और कभी बिना खाए ही सो जाते. मधु जानती थी, प्राइवेट नौकरी में वेतन ज्यादा होता है तो काम भी कस कर लिया जाता है. यद्यपि पहले स्थिति ऐसी नहीं थी. सुमित 8 बजे तक घर लौट आते थे और शाम का खाना दोनों साथ खाते थे. लेकिन जब से सुमित की कंपनी के मालिक की मृत्यु हुई थी और उन की विधवा ने सारा काम संभाला था तब से सुमित की जिम्मेदारियां भी बहुत बढ़ गई थीं और उस ने देरी से आना शुरू कर दिया था.

मधु शिकायत करती तो सुमित लाचारी से कहते, ‘‘क्या करूं डियर, आना तो मैं भी जल्दी चाहता हूं पर मैडम को अभी काम समझने में समय लगेगा. उन्हें बताने में देर हो जाती है.’’

एक विधवा के प्रति सहज सहानुभूति मान कर मधु चुप रह जाती.

शादी से पहले की प्रवक्ता की अपनी नौकरी वह छोड़ना नहीं चाहती थी. उस का पढ़ने का शौक शादी के बाद तक बरकरार था. इसलिए अपनी व्यस्ततम दिनचर्या में से समय निकाल कर वह लाइब्रेरी से पुस्तकें लाती रहती थी और देर रात सुमित का इंतजार करते हुए उन्हें पढ़ती रहती. हालात से अब उस ने समझौता कर लिया था. पर कभीकभी कुछ बेहद जरूरी मौकों पर उसे सुमित की गैरमौजूदगी खलती भी थी.

उस दिन भी वह आटो में गृहस्थी का सारा सामान ले कर 2 घंटे बाद घर लौटी तो थक कर चूर हो चुकी थी. गोद में विशू को लिए उस ने दोनों हाथों में भरे  हुए थैले उठाने चाहे तो लगा चक्कर खा कर वहीं न गिर पड़े. तभी जाने कहां से मणिकांत आ टपका था.

तुरतफुरत मणिकांत ने मधु को मय सामान और विशू के घर के अंदर पहुंचा दिया था. शिष्टतावश मधु ने उसे चाय पीने के लिए रोक लिया. वह चाय बनाने रसोई में घुसी तो विशू ने पौटी कर दी. मधु उस के कपड़े बदल कर लाई तब तक देखा मणिकांत 2 प्यालों में चाय सजाए उस का इंतजार कर रहा था.

‘‘अरे, तुम ने क्यों तकलीफ की? मैं तो आ ही रही थी,’’ मधु को संकोच ने आ घेरा था.

‘‘तकलीफ कैसी, मैडम? आप को इतना थका देख कर मैं तो वैसे भी कहने वाला था कि चाय मुझे बनाने दें, पर…’’

‘‘अच्छा, बैठो. चाय पीओ,’’ मधु ने सामने के सोफे की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘अच्छा, तुम इधर कैसे आए?’’

‘‘इधर मेरा कजिन रहता है. उसी से मिलने जा रहा था कि आप दिख गईं,’’ चाय पीते हुए मणिकांत ने पूछा, ‘‘मैडम, साहब कहीं बाहर नौकरी करते हैं?’’

‘‘अरे, नहीं. इसी शहर में हैं पर दफ्तर में बहुत व्यस्त रहते हैं इसलिए घर देर से आते हैं. सबकुछ मुझे ही देखना पड़ता है,’’ मधु कह तो गई पर फिर बात बदलते हुए बोली, ‘‘तुम्हारे घर में कौनकौन हैं?’’

‘‘मांपिताजी हैं, जो गांव में रहते हैं. शादी अभी हुई नहीं है. थोड़ा पढ़ालिखा हूं इसलिए शहर आ कर नौकरी करने लगा. पढ़नेलिखने का शौक है इसलिए पुराने मालिक ने यहां लाइब्रेरी में लगवा दिया,’’ कहते हुए मणिकांत उठ खड़ा हुआ. मधु उसे छोड़ने बाहर आई. उसे वापस उसी दिशा में जाते देख मधु ने टोका, ‘‘तुम अपने कजिन के यहां जाने वाले थे न?’’

‘‘हां…हां. पर आज यहीं बहुत देर हो गई है. फिर कभी चला जाऊंगा.’’

उस का रहस्यमय व्यवहार मधु की समझ में नहीं आ रहा था. उसे तो यह भी शक होने लगा था कि वह अपने कजिन से नहीं बल्कि उसी से मिलने आया था.

रात को मधु ने सुमित को मणिकांत के बारे में सबकुछ बता दिया.

‘‘भई, कमाल है,’’ सुमित बोले, ‘‘एक तो बेचारा तुम्हारी इतनी मदद कर रहा है और तुम हो कि उसी पर शक कर रही हो. खुद ही तो कहती रहती हो कि मैं गृहस्थी और विशू को अकेली ही संभालतेसंभालते थक जाती हूं. कोई हैल्पिंगहैंड नहीं है. अब यदि यह हैल्पिंग- हैंड आ गया है तो अपनी शिकायतों को खत्म कर दो. चाहो तो उसे काम के बदले पैसे दे दिया करो ताकि तुम्हें उस से काम लेने में संकोच न हो.’’

‘‘हूं, यह भी ठीक है,’’ मधु को सुमित की बात जंच गई.

अब मधु गाहेबगाहे मणिकांत की मदद ले लेती. वह तो हर रोज आने को तैयार था पर मधु का रवैया भांप कम ही आता था. हां, जब भी मणिकांत आता मधु के ढेरों काम निबटा जाता. कभी बिना कहे ही शाम को ढेरों सब्जियां ले कर पहुंच जाता. मधु उसे हिसाब से कुछ ज्यादा ही पैसे पकड़ा देती. फिर वह देर तक विशू को खिलाता रहता, तब तक मधु सारे काम निबटा लेती. फिर मधु उसे खाना खिला कर ही भेजती थी.

पैसे लेने में शुरू में तो मणिकांत ने बहुत आनाकानी की पर जब मधु ने धमकी दी कि फिर यहां आने की जरूरत नहीं है तो वह पैसा लेना मान गया. विशू भी अब उस से बहुत हिलमिल गया था. मधु को भी उस की आदत सी पड़ गई थी.

मणिकांत का पढ़ने का शौक भी मधु के माध्यम से पूरा हो जाता था क्योंकि वह लाइब्रेरी से अच्छी पुस्तकें चुनने में उस की मदद करती थी. किसी पुस्तक के बारे में उसे घंटों समझाती. इस तरह अपनी नीरस जिंदगी में अब मधु को कुछ सार नजर आने लगा था.

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