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घर के अंदर पैर रखते ही अर्चना समझ गई थी कि आज फिर कुछ हंगामा हुआ है. घर में कुछ न कुछ होता ही रहता था, इसलिए वह विचलित नहीं हुई. शांत भाव से उस ने दुपट्टे से मुंह पोंछा और कमरे में आई.

नित्य की भांति मां आंखें बंद कर के लेटी थीं. 15 वर्षीय आशा मुरझाए मुख को ले कर उस के सिरहाने खड़ी थी. छत पर पंखा घूम रहा था, फिर भी बरसात का मौसम होने के कारण उमसभरी गरमी थी. उस पर कमरे की एकमात्र खिड़की बंद होने से अर्चना को घुटन होने लगी. उस ने आशा से पूछा, ‘‘यह खिड़की बंद क्यों है? खोल दे.’’

आशा ने खिड़की खोल दी.

अर्चना मां के पलंग पर बैठ गई, ‘‘कैसी हो, मां?’’

मां की आंखों में आंसू डबडबा आए. वह भरे गले से बोलीं, ‘‘मौत क्या मेरे घर का रास्ता नहीं पहचानती?’’

‘‘मां, हमेशा ऐसी बातें क्यों करती रहती हो,’’ अर्चना ने मां के माथे पर हाथ रख दिया.

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‘‘तुम्हारे लिए बोझ ही तो हूं,’’ मां के आंसू गालों पर ढुलक आए.

‘‘मां, ऐसा क्यों सोचती हो. तुम तो हम दोनों के लिए सुरक्षा हो.’’

‘‘पर बेटी, अब और नहीं सहन होता.’’

‘‘क्या आज भी कुछ हुआ है?’’

‘‘वही पुरानी बात. महीने का आखिर है…जब तक तनख्वाह न मिले, कुछ न कुछ तो होता ही रहता है.’’

‘‘आज क्या हुआ?’’ अर्चना ने भयमिश्रित उत्सुकता से पूछा.

‘‘आराम कर तू, थक कर आई है.’’

अर्चना का मन करता था कि यहां से भाग जाए, पर साहस नहीं होता था. उस के वेतन में परिवार का भरणपोषण संभव नहीं था. ऊपर से मां की दवा इत्यादि में काफी खर्चा हो जाता था.

आशा के हाथ से चाय का प्याला ले कर अर्चना ने पूछा, ‘‘मां की दवा ले आई है न?’’

आशा ने इनकार में सिर हिलाया.

अर्चना के माथे पर बल पड़ गए, ‘‘क्यों?’’

आशा ने अपना माथा दिखाया, जिस पर गूमड़ निकल आया था. फिर धीरे से बोली, ‘‘पिताजी ने पैसे छीन लिए.’’

‘‘तो आज यह बात हुई है?’’

‘‘अब तो सहन नहीं होता. इस सत्यानासी शराब ने मेरे हंसतेखेलते परिवार को आग की भट्ठी में झोंक दिया है.’’

‘‘तुम्हारे दवा के पैसे शराब पीने के लिए छीन ले गए.’’

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‘‘आशा ने पैसे नहीं दिए तो वह चीखचीख कर गंदी गालियां देने लगे. फिर बेचारी का सिर दीवार में दे मारा.’’

क्रोध से अर्चना की आंखें जलने लगीं, ‘‘हालात सीमा से बाहर होते जा रहे हैं. अब तो कुछ करना ही पड़ेगा.’’

‘‘कुछ नहीं हो सकता, बेटी,’’ मां ने भरे गले से कहा, ‘‘थकी होगी, चाय पी ले.’’

अर्चना ने प्याला उठाया.

मां कुछ क्षण उस की ओर देखने के बाद बोलीं, ‘‘मैं एक बात सोच रही थी… अगर तू माने तो…’’

‘‘कैसी बात, मां?’’

‘‘देख, मैं तो ठीक होने वाली नहीं हूं. आज नहीं तो कल दम तोड़ना ही है. तू आशा को ले कर कामकाजी महिलावास में चली जा.’’

‘‘और तुम? मां, तुम तो पागल हो गई हो. तुम्हें इस अवस्था में यहां छोड़ कर हम कामकाजी महिलावास में चली जाएं. ऐसा सोचना भी नहीं.’’

रात को दोनों बहनें मां के कमरे में ही सोती थीं. कोने वाला कमरा पिता का था. पिता आधी रात को लौटते. कभी खाते, कभी नहीं खाते.

9 बजे सारा काम निबटा कर दोनों बहनें लेट गईं.

‘‘मां, आज बुखार नहीं आया. लगता है, दवा ने काम किया है.’’

‘‘अब और जीने की इच्छा नहीं है, बेटी. तुम दोनों के लिए मैं कुछ भी नहीं कर पाई.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, मां. तुम्हारे प्यार से कितनी शांति मिलती है हम दोनों को.’’

‘‘बेटी, विवाह करने से पहले बस, यही देखना कि लड़का शराब न पीता हो.’’

‘‘मां, पिताजी भी तो पहले नहीं पीते थे.’’

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‘‘वे दिन याद करती हूं तो आंसू नहीं रोक पाती,’’ मां ने गहरी सांस ली, ‘‘कितनी शांति थी तब घर में. आशा तो तेरे 8 वर्ष बाद हुई है. उस को होश आतेआते तो सुख के दिन खो ही गए. पर तुझे तो सब याद होगा?’’

मां के साथसाथ अर्चना भी अतीत में डूब गई. हां, उसे तो सब याद है. 12 वर्ष की आयु तक घर में कितनी संपन्नता थी. सुखी, स्वस्थ मां का चेहरा हर समय ममता से सराबोर रहता था. पिताजी समय पर दफ्तर से लौटते हुए हर रोज फल, मिठाई वगैरह जरूर लाते थे. रात खाने की मेज पर उन के कहकहे गूंजते रहते थे…

अर्चना को याद है, उस दिन पिता अपने कई सहकर्मियों से घिरे घर लौटे थे.

‘भाभी, मुंह मीठा कराइए, नरेशजी अफसर बन गए हैं,’ एकसाथ कई स्वर गूंजे थे.

मानो सारा संसार नाच उठा था. मां का मुख गर्व और खुशी की लालिमा से दमकने लगा था.

मुंह मीठा क्या, मां ने सब को भरपेट नाश्ता कराया था. महल्लेभर में मिठाई बंटवाई और खास लोगों की दावत की. रात को होटल में पिताजी ने अपने सहकर्मियों को खाना खिलाया था. उस दिन ही पहली बार शराब उन के होंठों से लगी थी.

अर्चना ने गहरी सांस ली. कितनी अजीब बात है कि मानवता और नैतिकता को निगल जाने वाली यह सत्यानासी शराब अब समाज के हर वर्ग में एक रिवाज सा बन गई है. फलतेफूलते परिवार देखतेदेखते ही कंगाल हो जाते हैं.

एक दिन महल्ले में प्रवेश करते ही रामप्रसाद ने अर्चना से कहा, ‘‘बेटी, तुम से कुछ कहना है.’’

अर्चना रुक गई, ‘‘कहिए, ताऊजी.’’

‘‘दफ्तर से थकीहारी लौट रही हो, घर जा कर थोड़ा सुस्ता लो. मैं आता हूं.’’

अर्चना के दिलोदिमाग में आशंका के बादल मंडराने लगे. रामप्रसाद बुजुर्ग व्यक्ति थे. हर कोई उन का सम्मान करता था.

चिंता में डूबी वह घर आई. आशा पालक काट रही थी. मां चुपचाप लेटी थीं.

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‘‘चाय के साथ परांठे खाओगी, दीदी?’’

‘‘नहीं, बस चाय,’’ अर्चना मां के पास आई, ‘‘कैसी हो, मां?’’

‘‘आज तू इतनी उदास क्यों लग रही है?’’ मां ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘गली के मोड़ पर ताऊजी मिले थे, कह रहे थे, कुछ बात करने घर आ रहे हैं.’’

मां एकाएक भय से कांप उठीं, ‘‘क्या कहना है?’’

‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा.’’

आशा चाय ले आई. तीनों ने चुपचाप चाय पी ली. फिर अर्चना लेट गई. झपकी आ गई.

आशा ने उसे जगाया, ‘‘दीदी, ताऊजी आए हैं.’’

मां कठिनाई से दीवार का सहारा लिए फर्श पर बैठी थीं. ताऊजी चारपाई पर बैठे हुए थे.

अर्चना को देखते ही बोले, ‘‘आओ बेटी, बैठो.’’

अर्चना उन के पास ही बैठ गई और बोली, ‘‘ताऊजी, क्या पिताजी के बारे में कुछ कहने आए हैं?’’

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