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इलाके के लोगों में वह कुरता देखने की कभी दिलचस्पी नहीं रही. भोलाराम लगातार आगे बढ़ते गए और दिल्ली में एक नामी पत्रकार हो गए. एक दिन इंदिरा गांधी ने उन्हें इस इलाके का सांसद बना दिया. इस इलाके के लोग नेताओं की बात नहीं टालते.

इंदिरा गांधी ने पहली चुनावी सभा में कहा, ‘‘यह इलाका भोलेभाले लोगों का है. यहां भोलाराम ही सच्चे प्रतिनिधि हो सकते हैं.’’

इंदिरा गांधी से आशीर्वाद ले कर भोलाराम भी उस दिन जोश से भर गए. उन्होंने मंच पर ही कहा, ‘‘इंदिरा गांधी की बात हम सभी को माननी है. अगर विरोधियों के भालों से बचना है, तो भोले को समर्थन जरूर दीजिए.’’

भोले और भाले का ऐसा तालमेल इंदिरा गांधी को भी भा गया. उन्होंने मुसकरा कर भोलाराम को और अतिरिक्त अंक दे दिया.

तब से लगातार 5 बार भोलाराम ही यहां के सांसद बने. वे इलाके के बड़े लोगों की बेहद कद्र करते हैं, इसीलिए भोलाराम की बात भी कोई नहीं टालता.

महीनाभर पहले शनीचरी बाजार में हंगामा मच गया. हुआ यह कि भोलाराम अपने टोपीधारी विशेष प्रतिनिधि के साथ बाजार आए. चैतराम मोची की दुकान बस अभी लगी ही थी कि दोनों नेता उस के आगे जा कर खड़े हो गए.

चैतराम ने इस से पहले कभी भोलाराम को देखा भी नहीं था. वह केवल साथ में आए गोपाल दाऊ को पहचानता था.

गोपाल दाऊ ने ही चैतराम को भोलाराम का परिचय दिया. खादी का कुरतापाजामा और गले में लाल रंग का  गमछा. भोलाराम तकरीबन 70 बरस के हैं, मगर चेहरा सुर्ख लाल है. चुनाव जीतने के बाद उन का सूखा चेहरा लाल होता गया और वे 2 भागों में बंट गए.

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भोलाराम दिल्ली में रहते तो सूटबूट पहनते. गले में लाल रंग का गमछा तो खैर रहा ही. दिल्ली में रहते तो दिल्ली वालों की तरह खातेपीते, लेकिन अपने संसदीय इलाके में मुनगा, बड़ी, मछरियाभाजी, कांदाभाजी ही खाते.

अपने इलाके में भंदई पे्रमी सांसद भोलाराम को सामने पा कर चैतराम को कुछ सूझा नहीं. भोलाराम ने उस के कंधे पर हाथ रख दिया.

चैतराम ने भोलाराम के पैरों में अपने हाथों की बनी भंदई रख दी. भंदई छत्तीसगढ़ी सैंडल को कहते हैं. मोची गांव में मरे मवेशियों के चमड़े से इसे बनाते हैं. सूखे दिनों की भंदई अलग होती है, जबकि बरसाती भंदई अलग बनती है.

अपने हाथ की बनी भंदई पहने देख भोलाराम के सामने चैतराम झुक गया. भोलाराम ने कहा, ‘‘भाई, मुझे पता लगा है कि तुम्हीं मुझे भंदई बना कर देते हो, इसलिए मिलने चला आया. इस बार 100 जोड़ी भंदई चाहिए.’’

‘‘100 जोड़ी…’’ चैतराम का मुंह खुला का खुला रह गया. भोलाराम ने कहा, ‘‘हां, 100 जोड़ी. दिल्ली में अपने दोस्तों को तुम्हारे हाथ की भंदई बहुत बांट चुका हूं. इस बार विदेशी दोस्तों का साथ होने वाला है.

‘‘मैं जब भी विदेश जाता हूं, तो वहां भंदई पर सब की नजर गड़ जाती है. सोचता हूं कि इस बार एकएक जोड़ी भंदई उन्हें भेंट करूं. बन जाएगी न?’’

चैतराम ने पूछा, ‘‘कब तक चाहिए मालिक?’’

‘‘2 महीने में.’’

‘‘2 महीने में… मालिक?’’

‘‘हांहां, 2 महीने में तुम्हें देनी है. मैं खुद आऊंगा तुम्हारे गांव में भंदई ले जाने के लिए.’’

‘‘मालिक, गांवभर के सारे मोची मिलजुल कर बनाएंगे. मैं गांव जा कर सब को तैयार करूंगा.’’

‘‘तुम जानो तुम्हारा काम जाने. मुझे तो भंदई चाहिए बस.’’

इतना सुनना था कि पास में दुकान लगाए उसी गांव के 2 और मोची एकसाथ बोल पड़े, ‘‘दाऊजी, आप की मेहरबानी से सब ठीकठाक है. हम सब मिल कर बना देंगे भंदई.

‘‘मगर मालिक, ये गौशाला वाले गांव में 20 एकड़ जमीन पर कब्जा कर के बैठ गए हैं. पिछले 2 साल से यहां के किसान अपने जानवरों को रिश्तेदारों के पास पहुंचाने लगे हैं.

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‘‘हुजूर, यह जगह जानवरों के चरने के लिए थी, मगर सेठ लोगों ने घेर कर कब्जा कर लिया है.

‘‘2 साल से हम सब लोग फरियाद कर रहे हैं, पर कोई सुनता ही नहीं. अब आप आ गए हैं, तो कुछ तो रास्ता निकालिए. छुड़ाइए गायभैंसों के लिए उस 20 एकड़ जमीन को. गौशाला के नाम से सेठ लोग गाय के चरने की जगह को ही लील ले गए साहब. अजब अंधेर है.’’

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