लेखक- सुकुमार महाजन

और उन के पैर सामने पड़ी कमजोर मेज पर बिखरी हुई गंदी फाइलों पर रखे थे. कहानी के उतारचढ़ाव के साथसाथ मेज भी आगेपीछे झूलती जाती थी. छत का पंखा आहिस्ताआहिस्ता घूम रहा था, इस पर भी कड़ी घुटन और गरमी महसूस हो रही थी. शायद कहानी में वह प्रसंग आ रहा था जब हीरो अपनी सहायिका को, जो एक सुंदरी थी, बांहों  में बांध कर यह बताता है कि किस तरह उस ने अकेले निहत्थे ही विदेशी जासूसों के दल का पता लगा कर उस का सफाया कर दिया.

तभी बाहर के कमरे में फोन की घंटी बज उठी. किसी ने फोन उठाया. थानेदार साहब का फोन था. उन्हें एक्सटेंशन दिया गया. पंजाबी में एक भद्दी सी गाली देते हुए उन्होंने किताब मेज पर दे मारी और चोंगे में जोर से ‘हां’ कहा.

‘‘मैं एस.पी. बोल रहा हूं,’’ दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘कितनी बार तुम से कहा कि फोन पर धीरे बोला करो, लेकिन तुम पर असर ही नहीं होता.’’

‘‘सर…जनाब,’’ वह तेजी से उठे और एडि़यां बजाते हुए तन कर सलाम किया, ‘‘साहब, हम लोगों को फोन पर इतना परेशान किया जाता है कि…’’

‘‘चुप रहो और मेरी बात सुनो. तुम्हारे यहां से एक पत्रकार का स्कूटर चोरी चला गया था. आज शाम तक वह मिल जाना चाहिए.’’

‘‘लेकिन, साहब,’’ थानेदार साहब ने कहना चाहा, ‘‘पहले ही 10 स्कूटरों और मोटर साइकिलों के केस पड़े हैं और…’’

‘‘बकवास मत करो. उन 10 की कोई जल्दी नहीं है. यह पत्रकार का स्कूटर है, फौरन मिलना चाहिए. जल्दी करो!’’ एस.पी. ने फोन रख दिया था.

थानेदार साहब ने गुस्से से चोंगे की तरफ देखा, फिर मेज पर पड़ी किताब की तरफ और फिर जोर से चोंगा पटक दिया.

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‘‘मुंशीजी,’’ वह दहाड़े.

बांहों पर 3 पट्टी वाले 6 फुटे मुंशीजी ने फौरन अंदर आ कर सलाम किया.

‘‘क्या किया तुम ने?’’ थानेदार ने पूछा.

‘‘क्या किया, हुजूर?’’

‘‘धत्तेरे की,’’ थानेदार साहब गरजे, ‘‘तुम दूसरे फोन पर सब बात सुन रहे थे. है न?’’

मुंशीजी ने स्वीकार किया.

‘‘फिर क्या किया तुम ने…’’ रुक कर उन्होंने सांस खींची, ‘‘क्या किया उस पत्रकार का स्कूटर शाम तक ढूंढ़ने के लिए?’’

मुंशीजी कोई जवाब दें, इस के पहले ही फोन की घंटी बजी और थानेदार साहब ने चोंगा उठाया.

‘‘जनाब सर,’’ जितना हो सकता था उतनी नम्रता से

वह बोले.

‘‘मैं सेतुरामन हूं, श्रीमान! मैं सरकारी इंजीनियर हूं और पी.वाई.जेड. कारखाने में काम करता हूं. मैं यह जानना चाहता था कि मेरे चोरी गए स्कूटर के संबंध में आप ने क्या काररवाई की है. शायद आप को याद हो, मैं ने 3 महीने पहले रिपोर्ट लिखाई थी.’’

‘‘मिस्टर सेतुरामन,’’ थानेदार ने कुढ़ कर कहा, ‘‘सरकारी नौकर होने का यह मतलब नहीं है कि आप पुलिस वालों पर हुक्म चलाएं. आप का स्कूटर ढूंढ़ने के अलावा हमारे पास और भी काम है. कुछ पता चला तो हम लोग आप को बताएंगे ही. आप बेकार हमारा वक्त क्यों बरबाद करते हैं?’’ अंतिम वाक्य उन्होंने बड़ी जोरदार आवाज में कहा.

‘‘हां, तो…’’ वह फिर मुंशीजी की तरफ मुड़े. तभी फोन की घंटी फिर बजी.

‘‘क्या है?’’ वह चिल्ला कर बोले.

‘‘मैं आई.जी. बोल रहा हूं. गधे, तुम यह कब सीखोगे कि हम प्रजातंत्र में रह रहे हैं और बदतमीजी से बोलना हमें शोभा नहीं देता, खासतौर से फोन पर.’’

थानेदार साहब ने एडि़यां बजाईं और तन कर सलाम किया, ‘‘सर, जनाब…’’ वह कुछ कहना चाहते थे मगर बात बीच में ही काट दी गई.

‘‘सुनो, एक पत्रकार का स्कूटर तुम्हारी तरफ से उठ गया है और…’’

‘‘एस.पी. साहब ने मुझे बताया था, हुजूर और…’’

‘‘गोली मारो उन को, मेरी बात सुनो. तुम्हारे इलाके से एक पत्रकार का स्कूटर चोरी चला गया है और ब्लिंक अखबार ने तूफान खड़ा कर रखा है. उन्होंने इस बात को ले कर संपादकीय में भी लिखा है, जैसे देश में और कोई समस्या है ही नहीं. जो भी हो, मैं चाहता हूं कि दोपहर को खाने की छुट्टी के पहले ही तुम स्कूटर ढूंढ़ निकालो. मिलते ही सीधे मुझे फोन करो. समझे!’’

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थानेदार साहब ने फोन की तरफ गुस्से से देखा फिर मुंशीजी की तरफ मुड़े.

‘‘तुम मेरी तरफ मरियल कुत्ते की तरह क्या घूर रहे हो?’’ वह जैसे फट पड़े, ‘‘जाओ, और जा कर कुछ करो.’’

‘‘लेकिन क्या किया जाए, हुजूर?’’

थानेदार साहब ने कुछ तेज बातें करने के लिए सांस भरी, लेकिन न जाने क्या सोच कर धीरे से छोड़ दी.

‘‘समझने की कोशिश करो, मुंशीजी, मैं तो मुसीबत में पड़ गया हूं. तुम्हारी और इस थाने की भी मुसीबत है. बस, एस.पी. भर की बात होती तो तरफदारी की बात के बहाने अपनी जान बचाई जा सकती थी. लेकिन आई.जी. के आगे…ना बाबा ना, सोचो, कुछ तो सोचो.’’

और आखिर मुंशीजी ने एक बढि़या तरकीब सोच ही निकाली, ‘‘हम लोग उस पत्रकार से लापरवाही से स्कूटर रखने के लिए जवाब तलब क्यों न करें?’’

थानेदार साहब का बस चलता तो वह मुंशीजी को कच्चा ही चबा जाते. लेकिन वह इतना ही कह कर रह गए, ‘‘तुम बुद्धू हो.’’

अचानक उन के चेहरे पर खुशी की एक लहर दौड़ गई. उन्होंने पूछा, ‘‘हमारे इलाके में कितने मोटर मिस्त्री हैं? खासतौर से उन के नाम बोलो, जो हमारे इस नंबरी रजिस्टर में दर्ज हैं.’’

मुंशीजी ने मूंछों पर हाथ फेरतेफेरते 2 बार खंखार कर गला साफ किया, जमीन की तरफ देखा और फिर छत की तरफ, थोड़ा सा हिलतेडुलते हुए बोले, ‘‘जी, कांस्टेबल भीमसिंह को पता होगा.’’

‘‘कहां है, वह?’’

‘‘वह अपनी बीवी को लेने स्टेशन गया है. उस के पहला बच्चा लड़का हुआ था. आज वह आ रही है.’’

‘‘मुबारक हो,’’ थानेदार साहब ने तानाकशी के साथ कहा, ‘‘और यहां मुजरिम को थाने में कौन लाएगा? तुम ही लाओगे? जाओ, जो कर सको, करो, नहीं तो आई.जी. साहब से कह दो और भुगतो,’’ फोन की तरफ इशारा करते हुए थानेदार साहब ने अपना अधूरा पढ़ा उपन्यास उठा लिया.

मुंशीजी थोड़ी देर तो खड़े रहे फिर बोले, ‘‘हुजूर…हुजूर, मुझे याद आया, भीमसिंह एक बार एक मिस्त्री के बारे में कह रहा था कि उस का नाम रिकार्ड में है रसिया…रसिया नाम है उस का.’’

निगाह उठा कर थानेदार साहब मुसकराए, ‘‘तो मुंशीजी, इंतजार किस बात का है? उसे पूछताछ के लिए बुलाओ.’’

थोड़ी ही देर में मुंशीजी थानेदार साहब के कमरे में वापस आ गए. उन के पीछे ही पीछे ग्रीस लगे हाथ पाजामे से पोंछता हुआ रसिया आया. अधजली बीडि़यां उस के दोनों कानों पर रखी उस की शोभा बढ़ा रही थीं.

मुंशीजी ने तन कर सलाम किया. जवाब में थानेदार साहब ने जैसे सिर से कोई मक्खी उड़ाई, लेकिन किताब में मशगूल रहे. पीछे जो कुछ हो, लेकिन कम से कम दूसरों के सामने पुलिस वाली औपचारिकता खूब निभाते हैं. मुंशीजी आराम से खड़े हो गए और रसिया भी खड़ा इधरउधर देखता रहा और अपने बालों पर हाथ फेरता रहा.

10 मिनट बाद किताब पढ़ चुकने पर थानेदार साहब ने रसिया की तरफ देखा और बोले, ‘‘पधारिए, रसियाजी, बैठिए, बैठिए. वाह मुंशीजी, आप ने इस बेचारे को बैठाया क्यों नहीं?’’

अपने सारे गंदे दांत निपोरते हुए रसिया कमरे में एक ओर पड़ी बैंच पर बैठ गया और उस का हाथ कान पर लगी बीड़ी पर चला गया. थानेदार साहब ने उसे बीड़ी जला लेने दी. फिर बोले, ‘‘यहां बीड़ी पीना मना है.’’ खिसियाते हुए उस ने बीड़ी बुझा दी और फिर कान पर ही रख ली.

थानेदार साहब ने मेज की दराज में से एक मोटा बेंत निकाल कर मेज पर रखा, फाइलों पर पटक कर उन की धूल साफ की, फिर उठ कर मेज के एक कोने के पास खड़े हो गए और उन्होंने रसिया व रसिया के घर वालों का हालचाल पूछा.

‘‘और धंधा कैसा चल रहा है?’’ घर का हालचाल जानने के बाद उन्होंने पूछा.

‘‘आप की किरपा से ठीक चल रहा है, माईबाप.’’

थानेदार साहब असली बात पर आए. तुम्हें इसलिए तकलीफ दी है कि एक पत्रकार का स्कूटर चोरी चला गया है. उसे आधे घंटे में ही मिल जाना चाहिए और इतनी जल्दी तो बस, तुम्हीं ढूंढ़ सकते हो.’’

‘‘माईबाप, स्कूटर तो 15 मिनट में थाने आ जाए. लेकिन बात यह है कि हम सब को अच्छा कमीशन मिलना चाहिए. बहुत अच्छी हालत में है वह.’’

‘‘हम सब का कमीशन? क्या मतलब?’’

‘‘माईबाप, जानते होंगे,’’ रसिया व्यंग्य से बोला, ‘‘सरकार, भीमसिंह ने हर चोरी का स्कूटर बिक्री करने के लिए 250 रुपए तय कर रखा है. 150 आप के और 50-50 मुंशीजी और भीमसिंह के. यह कमीशन दे कर ही हमें बेचने का हुक्म है.’’

थानेदार साहब दंग रह गए. उन्होंने मुंशीजी की तरफ देखा, वह शर्माए से खड़े थे. रसिया का कुछ हौसला बढ़ा तो उस ने बीड़ी सुलगाने की फिर कोशिश की.

‘‘बीड़ी नहीं,’’ थानेदार साहब गरजे और डंडा मेज पर पटका, ‘‘कितने स्कूटर इस तरह बेचे गए हैं?’’

‘‘हुजूर, 10, और मैं ने पूरापूरा कमीशन चुका दिया.’’

‘‘हूं, अब जल्दी से पत्रकार का स्कूटर ले आइए.’’

‘‘लेकिन, माईबाप.’’

‘‘अगर 10 मिनट में वह स्कूटर नहीं आया,’’ थानेदार साहब ने हर शब्द पर जोर देते हुए कहा, ‘‘तो तुम्हारी खाल उधेड़ दी जाएगी.’’

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रसिया के पीछे मुंशीजी भी मुड़े, लेकिन थानेदार ने उन्हें वापस बुला लिया. दुनिया में बहुत कुछ होता है जिसे शायद खुदा भी नहीं देख पाता. और इस थाने में भी वही होता है. उन्होंने बड़ी शांति से कहते हुए फोन उठाया, ‘‘हां, तो मुंशीजी, पता है आप को कि मेरा 1,500 रुपए का कर्ज किस पर है?’’

‘‘हां, हुजूर, मुझ पर और भीमसिंह पर.’’

‘‘कितने दिन में चुकेगा?’’

‘‘कुछ ही घंटों में, हुजूर, कांस्टेबल भीमसिंह के आते ही.’’

‘‘ठीक है, तुम जा सकते हो.’’

उन्होंने आई.जी. का नंबर मिलाया. उन के बोलते ही एडि़यां बजाते हुए सलाम किया और कहा, ‘‘हुजूर, मैं ने पत्रकार का स्कूटर ढूंढ़ लिया है.’’

‘‘शाबाश…शाबाश. 3 बजे कंट्रोल रूम में ले आओ. मैं साढ़े 3 बजे पुलिस की मुस्तैदी दिखाने के लिए प्रेस कानफे्रंस बुला रहा हूं.

‘‘तुम्हारी मुस्तैदी के इस मामले को देखते हुए एंटीकरप्शन डिपार्टमेंट में तुम्हारे तबादले की बात पर और अच्छी तरह ध्यान दिया जाएगा.’’

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खुशीखुशी सीटी बजाते हुए थानेदार साहब ने घड़ी देखी. उस वक्त साढे़ 12 बज रहे थे, ‘कंट्रोल रूम जाने के लिए तैयारी का काफी समय है.’ उन्होंने सोचा, ‘तब तक एक उपन्यास और क्यों न पढ़ लिया जाए?’ और वह पढ़ कर ही गए.

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