फोन अन्नू का था, ‘‘भाभी, आकाश भैया बहुत बीमार हैं. अस्पताल में भरती हैं. मेरा जी बहुत घबरा रहा है. हो सके तो आ जाइए.’’
पापा बाहर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. मैं नहीं चाहती थी कि आकाश का नाम और बीमारी की खबर उन के कानों तक पहुंचे. मां के बाद अब लेदे कर पापा ही तो बचे थे. अत: मैं उन्हें जरा सा भी दुख नहीं देना चाहती थी.
मां की मौत पर वह कैसे बिलख- बिलख कर रो रहे थे, ‘‘मैं ही तेरी मां की मौत का जिम्मेदार हूं. मैं ने ही सही समय पर डाक्टर को नहीं बुलाया, इसी कारण तेरी मां मर गई.’’
मैं जानती थी कि मां दवा वक्त पर न मिलने की वजह से नहीं मरीं बल्कि वह अपनी बेटी के दुख के गम में मरी थीं.
पापा अखबार पढ़ कर उठें उस से पहले मैं ने बाई से न केवल नाश्ता तैयार करवा लिया बल्कि अपनी झांसी जाने की योजना भी तैयार कर ली थी. पड़ोस की दमयंती चाची से, 1-2 दिन पापा और बिट््टू का खयाल रखने को कह कर मैं ने पापा को सूचना दी कि मुझे कालिज के काम से लखनऊ जाना है. सोचती हूं आज ही निकल जाऊं.
पापा ने खास पूछताछ नहीं की थी क्योंकि कालिज के काम से मेरा अकसर लखनऊ आनाजाना होता ही था. एक बैग में 4 जोड़े कपड़े डाल कर मैं सीधे बैंक गई. रुपए निकाले और झांसी जाने वाली पहली टे्रन में बैठ गई.
टे्रन अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी. उस के साथ भागते पेड़, खेत, खलिहान, नदियां आदि सब पीछे छूटते जा रहे थे. सीट पर बैठेबैठे ही मैं ने आंखें मूंद लीं. खयालों में आकाश और अन्नू के चेहरे आंखों के सामने आ कर ठहर गए थे.
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