टन…टन…दफ्तर की घड़ी ने साढ़े 4 बजने की सूचना दी तो सब एकएक कर के उठने लगे. आलोक ने जैसे यह आवाज सुनी ही नहीं.
‘‘चलना नहीं है क्या, यार?’’ नरेश ने पीठ में एक धौल मारी तो वह चौंक गया, ‘‘5 बज गए क्या?’’
‘‘कमाल है,’’ नरेश बोला, ‘‘घर में नई ब्याही बीवी बैठी है और पति को यह भी पता नहीं कि 5 कब बज गए. अरे मियां, तुम्हारे तो आजकल वे दिन हैं जब लगता है घड़ी की सुइयां खिसक ही नहीं रहीं और कमबख्त 5 बजने को ही नहीं आ रहे, पर एक तुम हो कि…’’
नरेश के व्यंग्य से आलोक के सीने में एक चोट सी लगी. फिर वह स्वयं को संभाल कर बोला, ‘‘मेरा कुछ काम अधूरा पड़ा है, उसे पूरा करना है. तुम चलो.’’
नरेश चल पड़ा. आलोक गहरी सांस ले कर कुरसी से टिक गया और सोचने लगा. वह नरेश को कैसे बताता कि नईनवेली बीवी है तभी तो वह यहां बैठा है. उस के अंदर की उमंग जैसे मर सी गई है. पिताजी को भी न जाने क्या सूझी कि उस के गले में ऐसी नकेल डाल दी जिसे न वह उतार सकता है और न खुश हो कर पहन सकता है. वह तो विवाह करना ही नहीं चाहता था. अकेले रहने का आदी हो गया था…विवाह की इच्छा ही नहीं होती थी.
उस ने कई शौक पाले हुए थे. शास्त्रीय संगीत के महान गायकों के कैसटों का अनुपम खजाना था उस के पास जिन्हें सुनतेसुनते वह न जाने कहां खो जाता था. इस के अलावा अच्छा साहित्य पढ़ना, शहर में आयोजित सभी चित्रकला प्रदर्शनियां देखना, कवि सम्मेलनों आदि में भाग लेना उस के प्रिय शौक थे और इन सब में व्यस्त रह कर उस ने विवाह के बारे में कभी सोचा भी न था.
ऐसे में पिताजी का पत्र आया था, ‘आलोक, तुम्हारे लिए एक लड़की देखी है. अच्छे खानदान की, प्रथम श्रेणी में एम.ए. है. मेरे मित्र की बेटी है. फोटो साथ भेज रहा हूं. मैं तो उन्हें हां कर चुका हूं. तुम्हारी स्वीकृ ति का इंतजार है.’
अनमना सा हो कर उस ने फोटो उठाया और गौर से देखने लगा था. तीखे नाकनक्श की एक आकर्षक मुखाकृति थी. बड़ीबड़ी भावप्रवण आंखें जैसे उस के सारे वजूद पर छा गई थीं और जाने किस रौ में उस ने वापसी डाक से ही पिताजी को अपनी स्वीकृति भेज दी थी.
पिताजी ने 1 माह बाद ही विवाह की तारीख नियत कर दी थी. उस के दोस्त नरेश, विपिन आदि हैरान थे और उसे सलाह दे रहे थे कि सिर्फ फोटो देख कर ही वह विवाह को कैसे राजी हो गया. कम से कम एक बार लड़की से रूबरू तो हो लेता. पर जवाब में वह हंस कर बोला था, ‘फोटो तो मैं ने देख ही लिया है. अब पिताजी लंगड़ीलूली बहू तो चुनेंगे नहीं.’
पर कितना गलत सोचा था उस ने. विवाह की प्रथम रात्रि को ही उस ने अरुणा के चेहरे पर प्रथम दृष्टि डाली तो सन्न रह गया था. अरुणा की रंगत काफी सांवली थी. फिर तो वे बड़ीबड़ी भावप्रवण आंखें, जिन में वह अकसर कल्पना में डूबा रहता था, वे तीखे नाकनक्श जो धार की तरह सीधे उस के हृदय में उतर जाते थे, सब जैसे कपूर से उड़ गए थे और रह गया था अरुणा का सांवला रंग.
अरुणा से तो उस ने कुछ नहीं कहा, पर सुबह पिताजी से लड़ पड़ा था, ‘कैसी लड़की देखी है आप ने मेरे लिए? आप पर भरोसा कर के मैं ने बिना देखे ही विवाह के लिए हां कर दी थी और आप ने…’
‘क्यों, क्या कमी है लड़की में? लंगड़ीलूली है क्या?’ पिताजी टेढ़ी नजरों से उसे देख कर बोले थे.
‘आप ने तो बस, जानवरों की तरह सिर्फ हाथपैरों की सलामती का ही ध्यान रखा. यह नहीं देखा कि उस का रंग कितना काला है.’
‘बेटे,’ पिताजी समझाते हुए बोले थे, ‘अरुणा अच्छे घर की सुशील लड़की है.
प्रथम श्रेणी में एम.ए. है. चाहो तो नौकरी करवा लेना. रंग का सांवला होना कोई बहुत बड़ी कमी नहीं है. और फिर अरुणा सांवली अवश्य है, पर काली नहीं.’
पिताजी और मां दोनों ने उसे अपने- अपने ढंग से समझाया था पर उस का आक्रोश कम न हुआ था. अरुणा के कानों में भी शायद इस वार्तालाप के अंश पड़ गए थे. रात को वह धीमे स्वर में बोली थी, ‘शायद यह विवाह आप की इच्छा के विरुद्ध हुआ है…’
वह खामोश रहा था. 15 दिन बाद ही वह काम पर वापस आ गया था. अरुणा भी उस के साथ थी. कानपुर आ कर अरुणा ने उस की अस्तव्यस्त गृहस्थी को सुचारु रूप से समेट लिया था.
‘‘साहब, घर नहीं जाना क्या?’’
चपरासी दीनानाथ का स्वर कान में पड़ा तो उस की विचारतंद्रा टूटी. 6 बज चुके थे. वह उठ खड़ा हुआ . घर जाने का भी जैसे कोई उत्साह नहीं था उस के अंदर. उसे आए 15 दिन हो गए हैं. अभी तक उस के दोस्तों ने अरुणा को नहीं देखा है. जब भी वे घर आने की बात करते हैं वह कोई न कोई बहाना बना कर टाल जाता है.
आखिर वह करे भी क्या? नरेश की बीवी सोनिया कितनी सुंदर है और आकर्षक भी. और विपिन की पत्नी कौन सी कम है. राजेश की पत्नी लीना भी कितनी गोरी और सुंदर है. अरुणा तो इन सब के सामने कुछ भी नहीं. उस के दोस्त तो पत्नियों को बगल में सजावटी वस्तु की तरह लिए घूमते हैं. एक वह है कि दिन के समय भी अरुणा को साथ ले कर बाहर नहीं निकलता. न जाने कैसी हीन ग्रंथि पनप रही है उस के अंदर. कैसी बेमेल जोड़ी है उन की.
घर पहुंचा तो अरुणा ने बाहर कुरसियां निकाली हुई थीं. तुरंत ही वह चाय और पोहा बना कर ले आई. वह खामोश चाय की चुसकियां ले रहा था. अरुणा उस के मन का हाल काफी हद तक समझ रही थी. उस ने छोटे से घर को तो अपने कुशल हाथों और कल्पनाशक्ति से सजा रखा था पर पति के मन की थाह वह नहीं ले पा सकी थी.