पूर्व कथा
‘इसे आप लोगों ने पसंद किया है? इस की लटकी सूरत देख कर तो लगता है कहीं से दोचार जूते खा कर आया हो, मुझे नहीं करनी इस से शादी.’ अगली बार भारती की शादी उस के मांबाप ने जिस लड़के से तय की वहां अपने कैरियर के बिगड़ने की बात कह कर उस ने इस से इनकार कर दिया.
फिर भारती का अपने सहपाठी हिमेश से जब कुछ दिन तक प्रेमप्रसंग चला तो बात शादी तक पहुंची. लेकिन इस बार भारती ने यह कह कर रिश्ता ठुकरा दिया कि वह संयुक्त परिवार के साथ नहीं रह सकती. इसी बीच भारती के पिता का देहांत हो गया. पिता की मृत्यु के बाद भारती के दोनों भाई अपनेअपने परिवार के साथ अलग रहने लगे. इस से मां को गहरा सदमा पहुंचा. उन्होंने भारती के लिए दूर के रिश्ते में एक इंजीनियर लड़के का रिश्ता सुझाया. इस बार तो भारती ने मां से खुल कर कह दिया, ‘‘मां, क्या जीवन की सार्थकता केवल शादी में है? आज मैं प्रथम श्रेणी की अफसर हूं. अच्छा कमाती हूं क्या यह उपलब्धियां कम हैं?’ परंतु जब भारती की मां ने उसे बहुत समझाया तो वह मोहित के साथ शादी करने के लिए तैयार हो जाती है. भारती और मोहित दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं. शादी की तारीख एक माह बाद की तय हो जाती है, अब आगे… भारती को अपने रूप और पद का इतना गुमान था कि जो भी रिश्ते आते वह शादी से इनकार करती रही. आखिर 50 वर्ष की उम्र तक कुंआरी रह कर जब उस ने अपने अतीत का विश्लेषण किया तो उसे एक ठोस निर्णय लेने पर मजबूर होना पड़ा. यथार्थ के धरातल पर जीवन के कटु सत्य को उजागर करती नरेंद्र कौर छाबड़ा की कहानी.
अंतिम भाग मां खुश थीं कि अब बेटी का घर बस जाएगा तो वह किसी भी बेटे के पास रहने चली जाएंगी. भारती व मोहित भी 1-2 दिन छोड़ कर फोन पर बात कर लेते थे. उस दिन भारती का जन्मदिन था. सबेरे से ही वह मोहित के फोन का इंतजार कर रही थी. बैंक के सभी सहयोगियों ने उसे शुभकामनाएं दीं. मां ने भी उस के लिए विशेष पकवान बनाए पर दिन गुजर गया मोहित का फोन नहीं आया. रात होतेहोते भारती का इंतजार खीज व क्रोध में बदलने लगा. हार कर उस ने मां से कह ही दिया, ‘मां, जिस व्यक्ति को शादी से पहले होने वाली पत्नी का जन्मदिन तक याद नहीं, वह शादी के बाद क्या खयाल रखेगा?’ मां समझाती रहीं, ‘बेटा, कोई जरूरी काम होगा या शायद उस की तबीयत ठीक न हो या शहर से बाहर गया हो.’ ‘फिर भी एक फोन तो कहीं से भी किया जा सकता है. क्या ऐसा नीरस इनसान मुझे शादी के बाद खुशियां दे सकेगा?’ जिद्दी बेटी कहीं कोई गलत कदम न उठा ले, यह सोच मां बोलीं, ‘ऐसा करो, तुम ही फोन लगा लो, पता लग जाएगा क्या बात है.’ ‘मैं फोन क्यों लगाऊं? उस से फोन कर के कहूं कि मेरे जन्मदिन पर मुझे बधाई दे? इतनी गईबीती नहीं हूं…
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आखिर मेरी भी इज्जत है…वह समझता क्या है अपनेआप को.’ अगले दिन भारती के बैंक जाने के बाद मां ने मोहित को फोन लगाया तो उस ने बताया कि काम के सिलसिले में वह इतना व्यस्त था कि भारती के जन्मदिन का याद ही नहीं रहा. उस ने मांजी से माफी मांगी और कहा, वह इसी वक्त भारती से फोन पर बात करेगा. मोहित ने भारती को फोन मिलाया तो उस ने बेरुखी से शिकायत की. मोहित ने समझाते हुए कहा, ‘भारती, इतनी नाराजगी ठीक नहीं. आखिर अब हम परिपक्वता के उस मुकाम पर हैं कि इन छोटीछोटी बातों के लिए शिकायतें बचकानी लगती हैं. नौजवान पीढ़ी ऐसी हरकतें करे तो चल सकता है लेकिन हम तो अधेड़ावस्था में हैं. कम से कम उम्र की गरिमा का तो खयाल रखना चाहिए.’ भारती ने आगबबूला होते हुए कहा, ‘तुम्हारी भावनाएं मर गई हैं तो क्या मैं भी अपनी भावनाओं को कुचल डालूं? तुम इतने नीरस हो तो जिंदगी में क्या रस रह जाएगा?’ मोहित को भी क्रोध आ गया और गुस्से में बोला, ‘तुम में अभी तक परिपक्वता नहीं आई, जो ऐसी बचकानी बातें कर रही हो.’ भारती ने मोहित के साथ शादी करने से साफ इनकार कर दिया. मां समझाती रहीं लेकिन जिद्दी, अडि़यल, तुनकमिजाज बेटी ने एक न सुनी. मां को इतना गहरा सदमा पहुंचा कि साल के भीतर ही दिल के दौरे से चल बसीं. अब भारती एकदम अकेली रह गई. शुरू में तो अकेलापन बहुत खलता था लेकिन धीरेधीरे इस अकेलेपन के साथ उस ने समझौता कर लिया. कितने तनाव होते हैं गृहस्थी में. कभी बच्चे बीमार कभी उन के स्कूल पढ़ाई का तनाव, कभी पति का लंबा आफिस दौरा, कितना मुश्किल है हर स्थिति को संभालना. तुम अपनी मर्जी की मालिक हो, न पति की झिकझिक न बच्चों की सिरदर्दी. यही सोच कर वह संतुष्ट हो जाती और अपने निर्णय पर उसे गर्व भी होता. देखते ही देखते समय छलांगें लगाते हुए सालों में बीतता गया.
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अब 50 वर्ष की आयु बीत जाने पर वैसे भी शादी की संभावना नहीं रहती. पदोन्नति पा कर भारती सहायक मैनेजर के पद पर कार्यरत थी. अपना छोटा सा फ्लैट व कार भी उस ने खरीद ली थी. भाइयों के साथ महीने में कभीकभी ही मुलाकात हो पाती थी. पिछले सप्ताह बैंक मैनेजर का तबादला हो गया और जो नए मैनेजर आए वे प्रौढ़ विधुर थे. कुछ ही समय में अपने नम्र, शालीन और अपनत्व से भरे व्यवहार से उन्होंने सभी कर्मचारियों को बेहद प्रभावित कर लिया. काम के सिलसिले में भारती को रोजाना ही उन से मिलना होता था. वह भी उन के व्यक्तित्व से प्रभावित थी. उस दिन कुछ काम का बोझ भी था और कुछ मानसिक तनाव भी चल रहा था. काम करतेकरते उसे बेचैनी, घबराहट महसूस होने लगी. सीने में हलका सा दर्द भी महसूस हुआ तो वह छुट्टी ले कर डाक्टर के पास पहुंची. डाक्टर ने पूरी जांच के बाद बताया कि उसे हलका सा दिल का दौरा पड़ा है. कम से कम 2 सप्ताह उसे आराम करना पड़ेगा. भारती ने छुट्टी की अर्जी भेज दी. अगले दिन से बैंक के सहकर्मी उस का हालचाल पूछने घर आने लगे. मैनेजर भी उस का हाल पूछने आए तो वह कुछ संकोच से भर उठी. काम वाली बाई ने ही चाय बना कर दी. घर में और कोई सदस्य तो था नहीं. भाईभाभियां आए, औपचारिक बातें कीं, अपने सुझाव दिए और चले गए. उस दिन भारती को पहली बार महसूस हुआ कि वह जीवन में नितांत अकेली है. दुख में भी कोई उस का हमदर्द नहीं है. काम वाली बाई ही उस के लिए खाना बना रही थी और वही उस के पास दिन भर रुकती भी थी. रात को भारती एकदम अकेली ही रहती थी. मैनेजर साहब ने कुछ देर तक औपचारिक बातें कीं फिर बोले, ‘मिस भारती, वैसे तो किसी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में बोलना शिष्टाचार के खिलाफ है फिर भी मैं आप से कुछ कहना चाहूंगा. उम्मीद है आप बुरा नहीं मानेंगी. देखिए, आप के अविवाहित रहने का फैसला आप का नितांत निजी फैसला है. इस में किसी को दखलंदाजी करने का अधिकार नहीं है, मुझे भी नहीं. पर मैं केवल इस बारे में अपने विचार रखूंगा, आप को सुझाव उपदेश देने की मेरी कोई मंशा नहीं है अत: इसे अन्यथा न लें. ‘दरअसल, विवाह को सामाजिक संस्था की मान्यता इसीलिए दी गई है कि व्यक्ति सारी उम्र अकेला नहीं रह सकता. पुरुष हो या स्त्री, सहारा दोनों के लिए जरूरी है.
कभीकभी परिस्थिति या अपरिहार्य कारणों से जो स्त्रीपुरुष अविवाहित रह जाते हैं वे ऊपरी तौर पर बेशक खुश रहने या सहज होने की बात करते हों लेकिन भीतर से अकेले, भयभीत, तनावग्रस्त व अवसाद से भरे रहते हैं. खासतौर पर अधेड़ावस्था उन्हें कुंठित, तनावग्रस्त व तुनकमिजाज बना देती है. असुरक्षा की भावना के चलते वे भीतर से भयभीत भी रहते हैं. जीवन में किस घड़ी कौन सी मुसीबत, दुर्घटना, बीमारी आ जाए क्या पता? उस समय उन की देखभाल कौन करेगा? इस तरह के सवाल उन्हें घेरे रहते हैं. ‘मनुष्य के जीवन में कई ऐसे अवसर आते हैं, कई ऐसे खुशी के मौके आते हैं जिन्हें वह किसी के संग बांटना चाहता है. दूर क्यों जाएं अपने दफ्तर की बातें, कोई दिलचस्प घटना या तनाव भी अपने साथी को बताते हैं, इस से मन हलका हो जाता है. मैं स्वयं अपने अकेलेपन को शिद्दत के साथ महसूस करता हूं. बेटे विदेश में बस गए हैं, अच्छी नौकरियां कर रहे हैं. पत्नी के निधन के बाद जिंदगी बोझिल सी लगती है. जितने समय कामकाज में व्यस्त रहता हूं जीवन सहज लगता है लेकिन जब काम से फारिग हो जाता हूं तो अकेले समय काटना बड़ी मुसीबत बन जाता है. पता नहीं आप ने इतना लंबा समय कैसे अकेले काट लिया? अच्छा, अब मैं चलता हूं. अपनी सेहत का खयाल रखना.’ अगले सप्ताह से भारती दफ्तर जाने लगी. मैनेजर साहब की बातों का उस पर इतना असर पड़ा कि अब सचमुच उसे अकेलापन काटने लगता. कभीकभी सोचती कि मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? मैं किस के लिए जी रही हूं? किस के लिए धन जमा कर रही हूं? अतीत का विश्लेषण करने पर महसूस होता शायद अपनी जिद, अडि़यल स्वभाव के कारण कुछ गलत फैसले ले कर अपने जीवन को एकाकी, रसहीन, उद्देश्यहीन बना लिया. मां मेरे सुखी जीवन के, खुशहाल परिवार के सपने देखतेदेखते दुनिया से बिदा हो गईं. मैं ने किसी की नहीं सुनी. केवल अपने कैरियर, अपनी इच्छाओं के बारे में ही सोचती रही. अपने निर्णय की गलती का एहसास अब हो रहा था.
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कैसे काटेगी इतनी लंबी जिंदगी अकेले? और इसी के साथ भारती ने बंद आंखें खोलीं तो उस का वर्तमान उस के सामने था. वह सोफे से उठी और कपड़े बदल कर बोझिल मन से बिस्तर पर जा पड़ी और अतीत की उस कड़ी को अपने आज से जोड़ कर देखने लगी. एकाएक भारती के मन में विचार कौंधा कि कहीं मैनेजर साहब ने अप्रत्यक्ष रूप से मेरे सामने शादी का प्रस्ताव तो नहीं रखा था? दिल और दिमाग के बीच तर्कवितर्क होने लगा. दिल कहता कि इस में हर्ज ही क्या है…मैनेजर साहब इतने भले व नेक इनसान हैं कि उन के साथ जिंदगी बिताई जा सकती है. दिमाग कहता कि तुम अपनेआप ही सपने बुनने लगी हो. क्या उन्होंने तुम्हारे सामने कोई प्रस्ताव रखा? फिर इस उम्र में शादी करोगी तो लोग क्या कहेंगे…दिल कहता कि लोगों का क्या है, कहने दो. वैसे पुरुष तो 60 वर्ष की उम्र में भी शादी कर ले तो समाज विरोध नहीं करता, फिर मैं तो अभी 50 की हूं. रही बात प्रस्ताव की तो हो सकता है कि वे भी मन ही मन इस की योजना बना रहे हों. दिमाग कहता कि तुम निरंकुश, आजादी की हिमायती शादी के बंधन में स्वयं को बांध पाओगी, वह भी उस पुरुष के साथ जो लंबे समय तक अपने बीवीबच्चों के साथ खुशहाल जीवन जी चुका है. दिल कहता, अब तो उसे भी साथी की जरूरत है, सामंजस्य तो दोनों को ही बैठाना पड़ेगा. अगर मुझे शेष बची जिंदगी चैन के साथ बितानी है तो कुछ समझौते तो करने ही पड़ेंगे. जिद छोड़ कर दिमाग कहता, ‘अगर मैनेजर साहब के साथ पटरी न बैठ पाई तो क्या करोगी? दिल ने कहा, जब दोनों को एकदूसरे की जरूरत है तो पटरी बैठ ही जाएगी. अब तक मैं इस गलतफहमी में जी रही थी कि मैं अकेली जी सकती हूं, किसी के सहारे की मुझे जरूरत नहीं. पर अब मेरी चेतना जागृत हो चुकी है. जीवन में समझौते करने ही पड़ते हैं.’ भारती इंतजार करती रही लेकिन मैनेजर साहब की ओर से कोई प्रस्ताव, कोई पहल नहीं हुई. कुछ समय बीत गया. अब कुछ ही समय रह गया था मैनेजर साहब की अवकाश प्राप्ति में. भारती चाह रही थी उन की तरफ से बात शुरू हो, लेकिन उस के चाहने से क्या होना था.
एक दिन उन्होंने बातचीत के दौरान कह ही दिया, ‘‘मिस भारती, अब मैं तो 2-3 महीने में सेवानिवृत्त हो कर चला जाऊंगा. जाने से पहले…’’ ‘‘आप की भविष्य की क्या योजना है?’’ उन की बात को बीच में ही काटते हुए भारती ने पूछा. ‘‘उम्र के इस पड़ाव में अकेले रहना बहुत कष्टप्रद होता है. मैं ने काफी सोचविचार कर यह फैसला लिया है कि बेटों के पास चला जाऊंगा. कम से कम उन के परिवार, बच्चों के साथ एकाकीपन की समस्या तो नहीं रहेगी. जीवन में समझौते तो करने ही पड़ते हैं,’’ कहतेकहते वह कुछ मायूस हो गए. भारती को महसूस हुआ, मानो पाने से पहले ही उस का सबकुछ लुट गया हो. भीतर बेचैनी सी उठने लगी, रुलाई सी आने लगी. बड़ी कठिनाई से उस ने खुद को संयत किया. मैनेजर साहब ने उस का उतरा हुआ चेहरा देखा तो बोले, ‘‘क्या बात है, तुम बड़ी परेशान नजर आ रही हो?’’ बड़ी मुश्किल से खुद को संभालते हुए भारती झिझकते हुए बोली, ‘‘मैं…सोच रही थी…क्या ऐसा नहीं हो सकता कि दो अकेले मिल कर एक नई जिंदगी की शुरुआत कर लें.’’ मैनेजर साहब हैरानी से उछल पड़े, ‘‘भारती, यह तुम कह रही हो? क्या तुम ने अच्छी तरह सोचविचार कर लिया है? उम्र के ये 50-52 साल तुम ने अपनी मनमरजी से बिताए हैं. अब समझौते के साथ जीवन जीना तुम्हें स्वीकार होगा?’’ ‘‘मैं बहुत सोचविचार के बाद इस नतीजे पर पहुंची हूं कि अकेले जिंदगी काटनी किसी सजा से कम नहीं है. अब तक निरंकुश, स्वतंत्र, अपनी इच्छा से जिंदगी जीने को ही मैं आदर्श जीवन माने बैठी थी, पर जब जीवन की सचाइयों से वास्ता पड़ा तो मेरा मोहभंग हुआ. जीवन समझौतों का ही दूसरा नाम है, यह अब मेरी समझ में आया है और शायद यही सच भी है.’’ भारती के मुंह से यह सुनने के बाद मैनेजर साहब के चेहरे पर भी धीरेधीरे राहत के भाव उभरने लगे थे.