Love Story : जमीला फूटे हुए अंडे को देख रही थी. कुछ कबूतर लड़भिड़ रहे थे, इसी से एक अंडा गिर कर फूट गया था. लड़कपन में वह झब्बू साह के घर खेलने जाया करती थी. उन के यहां ढेरों कबूतर थे. एक जोड़ी कबूतर वहीं से वह ले आई थी. हालांकि, अब्बा नाराज हुए थे, पर खाला जुबैदा खातून ने उन को चुप करा दिया था.
धीरेधीरे जमीला बड़ी हुई. कबूतर कभी उस के कंधों पर आ बैठते, तो कभी हाथों पर आ जाते और कभी उस के दुपट्टे में छिप कर आंखमिचौली करते. तब वह अजीब गुदगुदी से सिहर जाती.
जल्दी ही जमीला का निकाह हो गया. पर कुदरत को यह सब मंजूर न था. शहर में दंगा हुआ और उस का शौहर हमेशा के लिए उसे छोड़ कर चला गया. तब से जमीला के भीतर और बाहर धुआं ही धुआं भर गया. 2 सालों से वह इसी तरह घुटघुट कर जी रही थी.
अचानक ही दरवाजे पर बड़ी जोर से दस्तक हुई.
‘इस वक्त दोपहर में कौन हो सकता है?’ जमीला सोचने लगी, ‘बिना नामपता जाने कैसे दरवाजा खोलूं. अभीअभी तो पुलिस की गाड़ी इधर से गुजरी है.’
शहर में फिर दंगा भड़क उठा था. कई धमाको हो चुके थे. दर्जनभर लाशें बिछ चुकी थीं. जमीला चंद कदम आगे बढ़ कर ठिठक गई.
कोई दरवाजे को बारबार थपथपा रहा था. एकाध बार ‘बचा लो’ की हलकी आवाज भी उभरी थी.
‘जरूर फिर कहीं कुछ हुआ है,’ डर जमीला के पैर जकड़ रहा था और इनसानियत आगे धकेल रही थी.
आखिरकार इनसानियत की जीत हुई. जमीला ने दरवाजा खोल दिया. सामने डरा हुआ एक नौजवान हाथ जोड़े खड़ा था. जमीला की खामोश मंजूरी पा कर वह भीतर चला आया. लेकिन यह क्या, घबरा कर वह जमीला को गौर से देख कर वापस जाने लगा.
तब तक जमीला सबकुछ समझ गई थी. वह झट से बोली, ‘‘इस तरह घबरा कर क्यों जाने लगे, क्या तुम…?’’
वह नौजवान रुक कर बोला, ‘‘तुम तो मुसलमान हो, यहां मेरी जान को खतरा है…’’
‘‘इस तरह क्यों कहते हो? क्या सभी मुसलमान एकजैसे होते हैं? क्या सभी हिंदू दयावान ही होते हैं? अगर ऐसा नहीं है, तो तुम्हें मुझ से खौफ नहीं खाना चाहिए. वैसे, तुम कहां से आ रहे हो? क्या नाम है तुम्हारा?’’
‘‘मेरा नाम अमर है. मैं अपने गांव जा रहा था… रास्ते में कुछ लोगों ने मुझे पकड़ लिया… किसी तरह खुद को छुड़ा कर भागा हूं. आगे जाने की हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि सड़कों पर लोगों का हुजूम है.’’
जमीला ने दरवाजा बंद कर दिया और अमर को भीतर आने का इशारा किया. फिर कोठरी में चौकी पर बैठते हुए वह बोली, ‘‘सामने खाट पर बैठ जाओ. वैसे, किसी ने देखा तो नहीं न तुम्हें यहां आते हुए?’’
‘‘नहीं,’’ अमर ने भी हौले से जवाब दिया.
‘‘तुम्हें अब भी डर लग रहा है?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘भूख लगी है?’’
अमर कुछ बोला नहीं. वह चुपचाप जमीला की ओर देखता रहा.
‘‘प्यास तो लगी होगी?’’
अमर फिर भी चुप रहा.
‘‘तो फिर चले जाओ यहां से… न खाओगे, न बोलोगे, तो क्या भूखेप्यासे और गूंगे बन कर यहां रुकोगे?’’ जमीला मीठा गुस्सा बरसाते हुए रसोईघर में चली गई.
फिर एक थाली में खाना परोस कर जमीला खाला जुबैदा खातून के कमरे में दे आई.
घर में ये ही 2 जने थे. जुबैदा खातून ज्यादातर खाट पर ही पड़ी रहती थीं. हां, लाठी के सहारे वे कभीकभार आंगन में टहलने लगती थीं.
उन्होंने पूछा, ‘‘बेटी, किस से बातें कर रही थी?’’
जमीला पहले तो हंसी, फिर बोली, ‘‘एक बुद्धू है खाला. पास ही के गांव का है… भटका हुआ यहां आया है.’’
‘‘उसे खाना नहीं खिलाया?’’
जमीला फिर हंसी और बोली, ‘‘यही तो मुसीबत है. वह ठहरा हिंदू और हम…’’
‘‘तो देखो, वह न खाए तो जबरदस्ती मत खिलाना. उस से कहना कि जब बाहर कहर बरपना बंद हो जाए, तभी यहां से बाहर निकले. बेटी, इनसानियत से बढ़ कर कोई मजहब नहीं है. तू ने अभी तक खाना खाया कि नहीं?’’
‘‘नहीं खाला, घर में आया मेहमान भूखा हो तो मैं कैसे खा लूं?’’
अमर उन दोनों की बातें सुन रहा था. उस के दिल में हिंदूमुसलमान का कोई फर्क न था, पर वह डरा हुआ जरूर था.
जमीला फिर आ कर अमर के सामने चौकी पर बैठ गई. उस ने एक नजर अमर पर डाली. वह भी उसे ही देख रहा था. ज्यों ही जमीला की नजर उस पर पड़ी, वह सहम गया. जमीला उस के डर और भोलेपन को देख भीतर से मुसकरा उठी, पर चेहरे को जरा सख्त बनाए रखा.
जमीला अमर के बारे में सोच रही थी कि अचानक उस की आवाज ने चौंका दिया, ‘‘जमीला, क्या तुम खाना नहीं खाओगी?’’ अमर की आवाज में अपनापन था.
‘न जाने यह कमल किस तरह खिल गया?’ जमीला ने अमर को देख कर सोचा, तो अमर एक बार फिर झेंप गया. लेकिन फिर वह उस की हिरनी जैसी काली, चंचल गहरी आंखों में डूब गया.
अमर ने देखा कि इन आंखों से खूबसूरत कोई और जगह नहीं, फूलों का कोई बगीचा भी नहीं. सागर जैसी इस गहराई में प्यार की लहरें हैं, जो उस की तरफ बढ़ रही हैं.
अचानक जमीला की आवाज ने अमर को चौंका दिया, ‘‘अगर तुम खाना नहीं खाओगे, तो मैं भी नहीं खाऊंगी.’’
‘‘मुझे तो जोरों की भूख लगी है, इसीलिए कह रहा हूं,’’ कह कर अमर हंस दिया.
‘‘कहीं तुम्हारा धर्म तो नहीं बिगड़ जाएगा न?’’
‘‘कैसा धर्म? इनसानियत से बढ़ कर भी कोई धर्म है क्या? जल्दी से दो न मुझे खाना.’’
‘‘अभी देती हूं,’’ कहते हुए जमीला उठ गई.
शाम को जमीला चाय बना कर लाई. एक प्याला अमर के हाथों में थमाया, दूसरा खुद ले कर पीने बैठ गई.
‘‘चाय कैसी लगी?’’ थोड़ी देर बाद जमीला ने पूछा.
‘‘बहुत अच्छी.’’
‘‘और मैं?’’
‘‘तुम… तुम…’’
‘‘हांहां… मैं… बुद्धू…’’ खिलखिला कर हंसते हुए जमीला खड़ी हो गई.
अमर ने देखा, छिपकली की तरह दीवार से लग कर जमीला ने अपने बदन को ऐंठा और हौलेहौले रसोईघर की तरफ चल दी.
जमीला इस वक्त खिली हुई थी. उस का चेहरा सुर्ख हो उठा था. अमर उसे अपने दिल में जगह देने के लिए बेताब सा हो गया.
दूसरे दिन रात के 11 बजे बिलकुल नजदीक ही बम फटने की आवाज आई. धमाका इतना जोरदार था कि बरामदे में खाट पर सोई जमीला हड़बड़ा कर उठ बैठी. उसे लगा, जैसे धरती हिल गई हो.
अमर तो सोया ही नहीं था. कमरे से बाहर आ कर चारदीवारी से उचक कर बाहर देखने की कोशिश करने लगा, पर जमीला ने उस का हाथ पकड़ कर खींच लिया, ‘‘बुद्धू, तुम्हारी यह बचकानी हरकत हम सब को ले डूबेगी.’’
‘‘लेकिन तुम्हें इतनी चिंता क्यों होने लगी है? कहीं मुझे पनाह देने की वजह से तो तुम नहीं डर रहीं? आखिर मैं शरणार्थी ही तो हूं.’’
‘‘क्या कहा? तुम शरणार्थी हो?’’ जमीला झुंझला उठी, ‘‘क्या तुम खुद को शरणार्थी महसूस कर रहे हो? पर शरणार्थी के साथ धोखा भी हो सकता है अमर. तुम्हें काफिर समझ कर उन लोगों के हाथों सौंप भी सकती हूं. बोलो, ऐसा कर सकती हूं कि नहीं?’’
अमर जल्दी से बोल पड़ा, ‘‘नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकती…’’
‘‘क्यों नहीं कर सकती… आखिर क्यों?’’
‘‘इसलिए कि तुम मुझे चाहती हो…’’ अमर ने कहा.
‘‘तुम झूठ बोलते हो.’’
‘‘यह सच है. मैं नहीं जानता था… मुहब्बत भी कभीकभी इतनी जल्दी हो जाती है. तुम मुझ से प्यार करने लगी हो… और मैं भी…’’
इतना सुनते ही जमीला अमर के सीने से चिपक गई. पहली बार उसे महसूस हुआ कि वह नदी बन कर किसी सागर में उतरती जा रही है. सारे बांधों को तोड़ते हुए, जैसे उस में समाती जा रही है.
सुबह जमीला रोटियां सेंकसेंक कर अमर की थाली में रखती जा रही थी और वह वहीं पीढ़े पर बैठा खा रहा था. अचानक वह बोल बैठा, ‘‘तुम मुझे इस तरह अपने करीब बिठा कर खाना खिला रही हो, जैसे हम दोनों के बीच मियांबीवी का रिश्ता हो.’’
जमीला ने तवे को चूल्हे से उतार दिया, फिर दुपट्टे से माथे पर आए पसीने को पोंछा और अमर की आंखों में झांकती हुई बोली, ‘‘अगर मैं कहूं कि रिश्ता बना लो… यही, जो तुम ने अभी कहा है, तो क्या तुम तैयार हो जाओगे?’’
‘‘मैं तैयार हूं… पर, क्या तुम्हारे धर्म के लोग अड़चन नहीं डालेंगे?’’
‘‘अड़चन तो डालेंगे… और लड़ भी लूंगी मैं उन से, लेकिन मुश्किल है कि तुम अपनों से नहीं लड़ पाओगे अमर. लड़ने की ताकत तुम में है ही नहीं. अगर होती तो तुम मेरे घर छिप कर न बैठते?’’
अमर को लगा, सचमुच वह जमीला से बहस नहीं कर पाएगा. फिर भी उस ने छेड़ा, ‘‘यह जानते हुए भी तुम ने मुझे अपने यहां छिपा कर रखा और प्यार दिया.’’
‘‘इसलिए कि तुम भोले हो… तुम्हारी इसी नादानी और भोलेपन ने ही मुझे खींच लिया.’’
‘‘जमीला, तुम ठीक कहती हो. तुम सचमुच बहुत हिम्मत वाली हो. तुम ने बता दिया कि मुहब्बत ही असली धर्म है. मैं कोशिश करूंगा कि खुद को तुम्हारे जैसा बनाऊं.’’
‘‘लेकिन अमर, याद रहे… मुझे पाने के लिए वह सब तुम नहीं करोेगे, जो आशिक अकसर कर दिया करते हैं. प्यार से लोगों को समझा सको, तभी मुझे भी पा सकते हो.’’
‘‘पर, दुनिया वाले इतनी आसानी से नहीं मानेंगे.’’
‘‘क्यों नहीं मानेंगे? अगर नहीं मानेंगे तो पछताना भी उन्हीं को पड़ेगा न…’’
‘‘वह कैसे?’’
‘‘क्योंकि प्यार नहीं पछताता. मौका पड़ने पर अपनी जिद पर अड़ जाता है. चलो, अब चाय पी लो.’’
‘‘तो अब तुम यह समझ लो कि मैं तुम्हारे लिए सब सह लूंगा.’’
जमीला एकटक अमर को देखने लगी और अमर जमीला को.
शौहर की मौत के बाद से जमीला की हंसी ही जैसे छिन गई थी. बाद में निकाह के कई रिश्ते भी आए, पर उस ने कोई दिलचस्पी न दिखाई. कुम्हार के चाक पर गढ़ी हुई यह हसीना जब कभी बाहर कदम रखती तो शोहदों का कलेजा बाहर निकल आता. हालांकि, उस के चेहरे पर संजीदगी छाई रहती, पर आंखों से मस्ती और देह से खूशबू छलकती थी.
इन 3 दिनों में ही वे दोनों आपस में काफी घुलमिल गए थे. जमीला ने इतनी खुशी पाई, इतना प्यार पाया, जो सालों में उसे न मिला था. अमर ने जब अपने हाथों से उसे खाना खिलाया, तो वह मजहब की दीवार को भूल गई.
अपने शौहर नसीम के साथ कुछ वक्त उस ने गुजारा था, पर उस ने कभी ढंग से चंद बातें भी न की थीं. वह तो नशे में सिर्फ कड़वी बातें ही कहता था.
कुदरत का खेल भी निराला होता है. एक उस की जिंदगी में आया, पर जल्दी ही चला गया. जमीला उसे हमेशा के लिए भूल गई. पर, दूसरा जो आया, उसे वह अब कहां भूल सकती थी…
यही सोचतेसोचते आधी रात बीत गई. जमीला को नींद न आई, क्योंकि अमर को भोर में ही अपने गांव चले जाना था. फिर कब आएगा, यह तो वही जाने.
जमीला यह कहां जानती थी कि इतनी जल्दी वह एक अजनबी से इस तरह घुलमिल जाएगी… उस की आंखें भर आईं. वह भीतर से आ कर आंगन में बैठ गई.
अमर के दिल में भी यही तूफान चल रहा था. उसे चारों तरफ जमीला ही जमीला दिखाई दे रही थी. एक पल के लिए भी जब बिस्तर पर लेटे रहना उस के लिए मुश्किल हो गया, तो वह भी कमरे से निकल पड़ा.
सामने देखा कि जमीला बैठी हुई है. वह भी उस के नजदीक आ कर बैठ गया और बोला, ‘‘जमीला, तुम कब से यहां बैठी हो?’’
पर जमीला कुछ न बोली. अमर ने उस का चेहरा ऊपर उठाते हुए वही सवाल दोहराया, तो जमीला हिचकियां लेने लगी. चांद की रोशनी में आंसुओं से लबालब उस की आंखें एकटक अमर को देखने लगीं.
यह देख कर अमर का दिल डूबने लगा. पौ फटने में अभी देर थी. अमर जाने के लिए खड़ा हो गया, तो जमीला ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘फिर कब आओगे?’’
अमर ने भरे गले से कुछ बोलना चाहा, पर होंठों ने कुछ भी कहने से इनकार कर दिया.
लेखक – डा. महेश चंद