दूसरे दिन सुनयना वापस जा रही थी. भाभी ने आ कर मुझे उसे घर तक छोड़ने को कहा. मैं जान रहा था, यह मेरे और सुनयना को ले कर घर वालों के मन में जो खिचड़ी पक रही है, उसी साजिश का हिस्सा है पर अंदर ही अंदर मैं खुश भी था... मैं मन ही मन सोच रहा था, ’आज रास्ते में सुनयना के सामने सारी बातें स्पष्ट कर दूंगा.’
सुनयना मेरे पीछे चिपक कर बैठी हुई थी. मैं आदतन सामान्य गति से मोटरसाइकिल चला रहा था. वह अपनी हरकतों से मुझे बारबार छेड़ने का प्रयास कर रही थी. मैं चाह कर भी उसे टोक नहीं पा रहा था. वह बीचबीच में ‘नदिया के पार’ फिल्म का गाना गुनगुनाने लगती और रास्तेभर तरहतरह की बातों से मुझे उकसाने का प्रयास करती रही. पर मैं थोड़ाबहुत जवाब देने के अलावा बस, कभीकभार मुसकरा देता.
जब हम शहर की भीड़भाड़ से बाहर, खुली सड़क पर निकले तो दृश्य भी ‘नदिया के पार’ फिल्म के जैसा ही था, बस अंतर इतना था कि मेरे पास ‘बैलगाड़ी’ की जगह मोटरसाइकिल थी. सड़क के दोनों किनारे कतार में खड़े बड़ेबड़े पेड़ थे. सामने दोनों तरफ खेतों में लहलहाती फसलें और वनों से आच्छादित पहाडि़यों की शृंखलाएं नजर आ रही थीं.
बड़ा ही मनोरम दृश्य था. मेरा मन अनायास ही उमंग से भर उठा. लगा जैसे सुनयना का साथ दे कर मैं भी कोई गीत गुनगुनाऊं. पर अचानक नीतू का खयाल आते ही मैं फिर से गंभीर हो उठा. मैं ने मन ही मन सोचा कि मुझे नीतू के बारे में सुनयना को स्पष्ट बता देना चाहिए. पर पता नहीं क्यों मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा. बहुत कोशिश के बाद, किसी तरह खुद को संयत करते हुए मैं ने कहा, ‘‘सुनयनाजी, मैं आप से एक बात कहना चाहता हूं.’’
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