बगीचे के बाहर वाली रेलिंग के सहारे पानीपुरी से ले कर बड़ापाव तक तमाम तरह के ठेले और गाडि़यां लगी रहती थीं, जो बड़ी सड़क का एक किनारा था. यहां बेशुमार गाड़ियों का आनाजाना और लालपीले सिगनल जगमगाते रहते थे.

अपार्टमैंट के भीतर कुछ दुकानें, औफिस और रिहाइशी फ्लैट थे. वर्माजी यहां एक फ्लैट में अकेले रहते थे. वे एक बैंक में मैनेजर थे. उन के लिए संतोष की बात यह थी कि उन का बैंक भी इसी कैंपस में था, इसलिए उन्हें दूसरों की तरह लोकल ट्रेन में धक्के नहीं खाने पड़ते थे.

सालभर पहले वर्माजी की पोस्टिंग यहां हुई थी. यहां की बैंकिंग थोड़ी अलग थी. गांवकसबों में लोन मांगने वालों की पूरी वंशावली का पता आसानी से लग जाता था.

यहां हालात उलट थे. कर्जदार के बारे में पता लगाना टेढ़ी खीर थी. जाली दस्तावेज का डर अलग. नौकरी को खतरा न हो, इसलिए वर्माजी कर्ज देते वक्त जांचपड़ताल कर फूंकफूंक कर कदम रखते थे.

नौकरी और नियमों की ईमानदारी के चलते अकसर उन्हें यहांवहां की खाक छाननी पड़ती थी. हफ्तेभर की थकान के बाद रविवार को अखबार, कौफी मग, और उन की बालकनी में लटका चिडि़यों का घोंसला और सामने पड़ने वाला बगीचा उन में ताजगी भर देता था.

उसी बगीचे में चकवाचकवी का एक जोड़ा था सुजल और सुजाता का. दोनों पास ही गिरगांव चौपाटी की एक कंपनी में काम करते थे. सुजल तो अपने पूरे परिवार के साथ भीमनगर की किसी चाल में रहता था. सुजाता वापी से 7-8 साल पहले यहां पढ़ाई करने आई थी. तभी से कांदिवाली के एक फ्लैट में रहती थी.

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