‘तमाम गवाहों और सुबूतों के मद्देनजर यह अदालत मुलजिम विनय को दफा 376 के तहत कुसूरवार मानती है और उसे मुजरिम करार देते हुए 10 साल की सजा सुनाती है…’
बलात्कार पीडि़ता की उम्र 18 साल से कम थी, शायद 6 महीने कम. लिहाजा, नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार करने के जुर्म में सजा 10 साल की दी गई.
जज साहब को कौन समझाए और वे समझ भी रहे होंगे, तो फायदा क्या है? जो कानून की किताब कहती है, उसी के हिसाब से चलना है उन्हें.
आजकल के माहौल में बहुत सी लड़कियां 15-16 साल की उम्र में घर से भाग रही हैं. वे 14-15 साल की उम्र में ही बालिग हो जाती हैं. उन्हें पूरी जानकारी होती है और उन में जवानी भी उफान मारने लगती है.
18 साल में बालिग मानना तो कानून की भूल है. इसे सुधारना बहुत जरूरी है. 18 साल से पहले यानी कानून की नजर में नाबालिग लड़कियां आप को शहर के पार्कों, सिनेमाघरों, रैस्टोरैंटों, होटल के बंद कमरों में सबकुछ करते हुए मिल जाएंगी.
बात किसी पर कीचड़ उछालने की नहीं है, मौजूदा तकनीकों और माहौल के चलते समय से पहले बालिग होने की है.
यही बात लड़कों पर भी लागू होती है. 21 साल से पहले वे वेश्याओं और महल्ले की आंटियों के साथसाथ पढ़ने वाली लड़कियों और बेहूदा किताबों व फिल्मों से सीख कर समय से पहले ही बालिग हो जाते हैं.
सजा सुनते ही विनय के होश उड़ गए. एक सरकारी मुलाजिम, पत्नी, जवान होती बेटी और नौकरी तलाश करते बेटे के पिता का तो सबकुछ जैसे खत्म हो गया. नौकरी गई. समाज में थूथू हुई. अब बेटी की शादी कैसे होगी? बेटे के भविष्य का क्या होगा?
लेकिन विनय के हाथ में क्या था सिवाय खुद को लुटते देखने के. बच्चों का शर्म से चेहरा उतर गया. पत्नी ने रोते हुए हिम्मत दी, लेकिन क्या होना है? वकील ने तो बड़ी अदालत में अपील करने के लिए कह दिया, लेकिन पैसे कहां से आएंगे?
जिस दिन केस बना था, उस दिन से ले कर आज तक विनय को यह उम्मीद थी कि एक न एक दिन सच सामने आएगा और वे बाइज्जत बरी होंगे. पर अदालत के फैसले के बाद तो मानो सारे दरवाजे बंद हो गए.
पुलिस ने जिस दिन विनय को गिरफ्तार किया था, उस दिन शहरभर के अखबारों में यह मुद्दा खूब छपा था.
पत्नी ने कहा था, ‘मैं बच्चों को ले कर मायके जा रही हूं. अब यहां किस मुंह से रहेंगे. आप की अपील के पैसे वकील साहब को दे दिए हैं. मैं बीचबीच में आती रहूंगी.’
पत्नी रोते हुए उदास हो कर चली गई थी. उस लड़की ने सबकुछ बरबाद कर दिया.
विनय की बेटी की सहेली थी. घर आतीजाती रहती थी. वह विनय को अंकल कहा करती थी और अजीब निगाहों से देखा करती थी.
विनय ने उसे कई बार आवारा किस्म के लड़कों के साथ घूमते देखा था. महल्ले में उस लड़की के बारे में तरहतरह की बातें होने लगी थीं.
उन्होंने अपनी बेटी से कहा भी था कि वह अपनी इस सहेली से दूरी बना कर रखे, लेकिन उलटा बेटी ने सुना दिया था.
वह बोली थी, ‘पापा, अब तो कोऐजुकेशन का जमाना है. लड़के और लड़कियां साथ में पढ़ते हैं. अगर वह किसी लड़के के साथ काम से गई भी होगी, तो इस में लोगों को क्या तकलीफ है? लोग अभी भी पुराने जमाने में जी रहे हैं.’
पत्नी ने भी उन्हें समझाया था, ‘वह लड़की क्या करती है, इस से हमें क्या लेनादेना? उस का कोई भाई भी नहीं है. हमारी बेटी की सहेली है.
‘बच्चे हैं… थोड़ीबहुत मौजमस्ती, हंसीमजाक कर लिया, तो क्या हो गया. अब हमारा जमाना नहीं रहा. बेटियों को पढ़ालिखा रहे हैं, तो उन्हें आजादी भी मिलनी चाहिए.’
यह सुन कर विनय चुप रहे. क्या करते? क्या कहते? लेकिन वे जानते थे कि कमरे में बंद हो कर बच्चे उलटीसीधी किताबें पढ़ते हैं. इंटरनैट पर फालतू चीजें देखते हैं. कभी सीडी ला कर फिल्म देखते हैं. लेकिन इन सब चीजों के लिए बच्चों को खासकर जवान होती बेटियों को कैसे टोकें? कैसे समझाएं?
एक बार धोखे से डीवीडी में सीडी फंसी रह गई थी. बेटी भूल गई होगी या उसे अंदाजा नहीं होगा कि पिता उस के कमरे में आ कर देख लेंगे. बेटी कालेज चली गई. उन्होंने देखा. ब्लू फिल्म की सीडी थी.
उन्होंने अपनी पत्नी को भी बुला कर दिखाया और गुस्से में कहा था, ‘देखो, यह पढ़ाई होती है बंद कमरा कर के.’
पत्नी ने कहा था, ‘इसे वैसा ही छोड़ दो, ताकि बेटी को शक न हो कि हम
ने देख लिया है. मैं अपने तरीके से समझा दूंगी.’
विनय चुप रहे. अब पत्नी ने क्या समझाया? उस का क्या असर पड़ा? पड़ा भी या नहीं? बस, इतना ही पता चला कि बेटी ने शर्मिंदगी से ‘सौरी’ कहा और यह भी कहा कि उस के
कमरे में जा कर जासूसी करने की क्या जरूरत थी?
खैर, दिन गुजरते रहे. विनय की अपील इस बात पर रद्द हो गई कि एक तो नाबालिग, ऊपर से अनुसूचित जाति की लड़की. सजा बरकरार रही. सारी उम्मीदें टूट गईं. सबकुछ खत्म हो गया. जो लोग किसी न किसी केस में सजा भोग रहे थे, वे विनय से गंदे मजाक करते.
‘इस उम्र में भी गजब की जवानी भरी है बुढ़ऊ में. अपनी बेटी की सहेली को ही निबटा दिया…’
पहले तो विनय को ऐसी बातें तीर की तरह चुभती थीं, फिर आदत पड़ गई. धीरेधीरे लोगों को याद रहा, तो सिर्फ यह कि यह शख्स बलात्कार के केस में सजा काट रहा है. फिर जेल, जेल के नियम, जेल में सख्ती, सजा भोगतेभोगते बचे समय में सब अपने दुखदर्द एकदूसरे को सुनाते रहते. कभी घरपरिवार की पिछली बातें, कभी अपराध करने की वजह.
विनय जब भी खुद को बेकुसूर बताते, साथी मुजरिम हंसने लगते. उन्हें यकीन नहीं होता था. वे कहते कि चलो पुलिस झूठी, अदालत भी झूठी, फिर एक नाबालिग लड़की तुम पर बलात्कार का आरोप क्यों लगाएगी? वह अपनी खुद की जिंदगी क्यों बरबाद करेगी? यह कहो कि हो गई गलती. मजे के चक्कर में फंस गए.