किसी रेलवे प्लेटफौर्म पर खड़े हो जाओ, तो लगता है कि सारी दुनिया कहीं आनेजाने में लगी हुई है. यहां किसी को लेने आओ और इंतजार करो, तो उस का अलग ही मजा है. देखते रहो लोगों को आतेजाते, उन की गतिविधियां, अलग ही आनंद होता है इन सब को देखने का. कौन से स्टेशन पर कौन मिलेगा और कौन बिछुड़ेगा. कुछ नहीं पता, किस का साथ कितनी देर तक और कितनी दूर तक, यह भी नहीं मालूम, किस की यादों के फूल सदा सुगंध बिखेरते रहेंगे और किस के कांटे बन कर सदा चुभते रहेंगे, यह भी रहस्य ही रहता है.
एक बार बिटिया कानपुर गई थी. मैं उसे लेने के लिए स्टेशन गई थी. ट्रेन 3 घंटे देरी से आनी थी. मैं एक उपन्यास ले गई थी. प्लेटफौम पर स्टौल से कौफी खरीदी और उसे पढ़ने की जगह ढूंढ़ने लगी. कोने की एक बैंच पर एक बुजुर्ग और लगभग 3-4 साल का एक छोटा बच्चा बैठे हुए थे. बाकी सब जगहें भरी हुई थीं. मैं वहीं चली गई और उन के साथ बैठ गई. वे बुजुर्ग उस बच्चे के साथ खेलने में लगे हुए थे. बच्चा बड़े प्यार से खिलखिला कर उन के साथ खेल रहा था. यह देख कर मेरे चेहरे पर भी मुसकान आ गईर् और मैं मुसकराते हुए दूसरे कोने में बैठ गई और उपन्यास पढ़ने की कोशिश करने लगी. पर उस बच्चे की खिलखिलाती हुई हंसी से मेरा ध्यान बारबार उस की तरफ चला जाता. उन बुजुर्ग का ठेठ देहाती पहनावा होने के बावजूद वे एक संपन्न और संभ्रांत परिवार के लग रहे थे. सफेद धोतीकुरते और सफेद बड़ी सी पगड़ी लपेटे, बड़ीबड़ी सफेद रोबीली मूंछें और आंखों में काले फ्रेम के चश्मे में उन का तेजस्वी व्यक्तित्व झलक रहा था. बैठे हुए होने पर भी उन की कदकाठी ऊंची ही लग रही थी. लंबेलंबे पैरों में काली चमकदार जूतियां सजी थीं. वे देहाती नहीं, बहुत पढ़ेलिखे लगे. बच्चे को वे वैभव कह कर बुला रहे थे.
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