भारतीय रेल यात्रा में जिस तरह से जानमाल का खतरा बना हुआ है और उस के ‘बुरे दिन’ हैं, ऐसे में किसी शायर की ये चंद लाइनें व भाजपा का नारा ‘सब का साथ सब का विकास’ के बजाय ‘स्टाफ का विकास, मुसाफिरों का विनाश’ बहुत मौजूं है.
यहां की रेल व्यवस्था राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और नकारा स्टाफ की वजह से भारी बुरे दौर से गुजर रही है, मगर फिर भी बुलेट ट्रेन चलाए जाने का थोथा शोर है. मुसाफिरों की जान की हिफाजत का कोई खास जोर नहीं है, क्योंकि सरकार और उस के मुलाजिम दोनों मन, कर्म और वचन से चोर हैं.
सरकारी आंकड़े चीख रहे हैं कि रेलवे में होने वाले हादसों में आधे से भी ज्यादा हादसे सिर्फ स्टाफ की लापरवाही से होते हैं, फिर भी सरकार है कि उन कुसूरवार रेल अफसरों, मुलाजिमों पर कोई आपराधिक कार्यवाही करने से बचती रहती है. महज अनुशासनात्मक कार्यवाही कर अगली बार फिर मौत पर मातम मनाती है, आखिर में मौत के मुलाजिमों को छोड़ देती है. यही वजह है कि अब तक स्टाफ की कमी से हुए रेल हादसों में कार्यवाही का कोई बड़ा उदाहरण नहीं दिखा है, जिस से स्टाफ सहमा हो और रेल हादसे रुके हों.
सरकार संसद के भीतर तो यह स्वीकार करती है कि रेल हादसों में रेलवे मुलाजिम कुसूरवार हैं, मगर उन को गिरफ्तार किए जाने, कठोर सजा दिलवाने में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाती.
ध्यान देने वाली बात यह है कि रेलवे के कुसूरवार अफसरों, मुलाजिमों पर कोई कठोर कार्यवाही न करने के चलते हादसों के साथ इस से होने वाला माली नुकसान भी बढ़ता चला जा रहा है, जो जनता की गाढ़ी कमाई है.
संसद में हुई बहस के दौरान जो आंकड़े बताए गए हैं, उन के मुताबिक, रेल हादसों के चलते साल 2014-15 में 70.07 करोड़ रुपए का माली नुकसान हुआ है, वहीं 2016-17 में हुए कुल सौ हादसों में 59.06 करोड़ रुपए का माली नुकसान हुआ है.
मोदी सरकार ‘अच्छे दिन’ के जुमलों से जोरशोर से सत्ता में तो आ गई, मगर रेल के सफर के दौरान होने वाले मौतरूपी मर्ज को जड़ से न दूर कर के ट्वीट करने पर दूध और दवा मुहैया कराने की वाहवाही लूटने में लग गई. इस के साथ ही बुलेट ट्रेन चलाने और ट्रेनों में वाईफाई मुहैया कराने और अब तो ट्रेन में ही शौपिंग कराने का दावा करने में लगी है, जबकि मुसाफिर ट्रेन में बैठेंगे तो महफूज अपनी मंजिल तक पहुंच पाएंगे, इस की कोई गारंटी नहीं है.
6 महीने में रेल हादसे
* 26 सितंबर, 2017. मुंबई के एलफिंस्टन रोड उपनगरीय रेलवे स्टेशन के फुटओवर ब्रिज पर हुई भगदड़ में 22 लोगों की मौत हो गई और 32 लोग घायल हो गए.
* 6 सितंबर, 2017. नए रेल मंत्री पीयूष गोयल की ताजपोशी के बाद एक ही दिन में देश के अलगअलग हिस्सों में 4 रेल हादसे हुए. पहली घटना में उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में ‘शक्तिपुंज ऐक्सप्रैस’ के 7 डब्बे बेपटरी हो गए, वहीं दूसरी घटना में मिंटो पुल के निकट ‘रांचीदिल्ली राजधानी’ का इंजन और पावर कार उतर गया. तीसरी में महाराष्ट्र में खंडाला के निकट मालगाड़ी पटरी से उतर गई. चौथी में फर्रुखाबाद और फतेहगढ़ के पास ‘दिल्लीकानपुर कालिंदी ऐक्सप्रैस’ बड़ा हादसा होने से बालबाल बच गई.
* 17 अगस्त, 2017. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के निकट खतौली में ‘पुरी उत्कल ऐक्सप्रैस’ के हादसे में 23 लोगों की जानें चली गईं, जबकि 150 से ज्यादा लोग घायल हुए.
* 22 अगस्त, 2017. उत्तर प्रदेश के औरैया में ‘कैफियत ऐक्सप्रैस’ के एक डंपर से टकराने के चलते 9 कोच पटरी से उतर गए और दर्जनों मुसाफिर घायल हो गए.
* 21 मई, 2017. उत्तर प्रदेश के उन्नाव स्टेशन के पास ‘लोकमान्य तिलक सुपरफास्ट’ ट्रेन के 8 कोच पटरी से उतर गए, जिस में 20 मुसाफिर घायल हो गए.
* 15 अप्रैल, 2017. ‘मेरठलखनऊ राजरानी ऐक्सप्रैस’ के 8 कोच रामपुर के पास पटरी से उतर गए. इस में तकरीबन एक दर्जन मुसाफिर घायल हो गए.
होते होते टला हादसा
* 27 सितंबर, 2017. इलाहाबाद के निकट एक ही पटरी पर ‘दूरंतो ऐक्सप्रैस’ समेत 3 ट्रेनें एकसाथ टकराने से बालबाल बच गईं.
* 29 सितंबर, 2017. उन्नाव में गंगा घाट रेलवे स्टेशन से मालगाड़ी को बिना गार्ड के ही रायबरेली के लिए भेज दिया गया.
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, मोदी सरकार में 3 साल तक रेल मंत्री रहे सुरेश प्रभु के कार्यकाल में छोटेबड़े कुल 3 सौ रेल हादसे हुए, जिस में सिर्फ साल 2017 में जनवरी से अगस्त महीने तक 31 रेल हादसे हो चुके थे.
पूर्व केंद्रीय रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने इन हादसों के बाबत नैतिक आधार पर इस्तीफा देने की पेशकश की, जिस के बाद तत्कालीन ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल को यह मंत्रालय मिला, मगर फिर भी हादसे हैं कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे हैं.
* 19 जुलाई, 2017. संसद में पूर्व केंद्रीय रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने रेल स्टाफ की लापरवाही की वजह से हुए हादसों के बाबत बताया था कि साल 2015-16 में हुए कुल 107 रेल हादसों में 55 हादसे और साल 2016-17 में 85 हादसों में से 56 हादसे सिर्फ स्टाफ की लापरवाही से हुए हैं.
इसी तरह नीति आयोग की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2012 से साल 2016-17 तक हर 10 रेल हादसों में से सिर्फ 6 हादसे स्टाफ की चूक की वजह से हुए हैं.
नीति आयोग की एक दूसरी रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2017 में 31 मार्च तक 104 हादसों में से 66 हादसे स्टाफ की लापरवाही से हुए हैं.
गुनाहगारों को सजा नहीं
दरअसल, रेलवे के बड़े हादसों की जांच के लिए संसद ने एक कानून बना कर रेलवे संरक्षा आयोग बनाया है. निष्पक्ष जांच के लिए इस आयोग को केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्रालय के तहत रखा गया है. इस आयोग का मुखिया संरक्षा आयुक्त होता है, जो रेलवे के अलगअलग जोन का काम देखने वाले 5 आयुक्तों के साथ काम करता है.
संरक्षा आयोग के पास इतना काम होता है कि लंबे अरसे तक जांच ही चलती रहती है. अब तक का इतिहास बताता है कि इस आयोग के आयुक्त ज्यादातर रेलवे के ही लोग होते हैं. इस से भी जांच का काम काफी हद तक प्रभावित होता है. कभी अगर कार्यवाही होती भी है, तो छोटे अफसरों पर हो जाती है, बड़े अफसर साफसाफ बचा लिए जाते हैं.
रेलवे के एक रिटायर्ड जनरल मैनेजर ने बताया कि भारतीय रेलवे की नियम पुस्तिका के मुताबिक, ट्रैक के रखरखाव के लिए रोजाना 3 से 4 घंटे तय हैं, मगर ऐसा हो नहीं पाता. ज्यादातर नियम स्टाफ की लापरवाही की भेंट चढ़ जाते हैं. कभीकभी ट्रैक के खाली न होने या फिर ट्रेन के देरी से आने की वजह से भी ऐसा होता है.
वे आगे बताते हैं कि इस की असल वजह नियमों के न होने की नहीं है, बल्कि उन नियमों के सही से लागू न हो पाने की है.
इधर रेलवे ने हाल ही में टिकट में फ्लैक्सी रेट जैसे नएनए शिगूफे छोड़ कर जम कर आमदनी बढ़ाई है. अकसर रेल मुसाफिर यह कहते हुए मिल जाते हैं कि फर्स्ट क्लास के सफर का खर्च उतनी ही दूरी के हवाईजहाज के सफर के खर्च के तकरीबन बराबर है.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब मुसाफिर का अहम मकसद एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंचना है, तो क्या रेलवे उस जगह तक महफूज पहुंचाने की गारंटी भी गंभीरता से देती है?
इस बाबत रेलवे से जुड़े एक रिटायर्ड अफसर बताते है कि रेलवे को मिलने वाले एक रुपए में से महज 7 पैसे ही रखरखाव के लिए लगाए जाते हैं, बाकी दूसरे कामों में इस्तेमाल हो जाते हैं.
हालांकि साल 2014-15 के मुकाबले हिफाजत पर खर्च होने वाली रकम को साल 2017-18 में 42.430 करोड़ रुपए से बढ़ा कर 65.241 करोड़ रुपए कर दिया गया है.
रेल का राजनीतिकरण
वैसे तो रेलवे देश की ‘लाइफलाइन’ कहलाती है, मगर इस के राजनीतिकरण ने उसे तकरीबन ‘किलर लाइन’ में तबदील कर दिया है.
देखने में आता है कि गठबंधन सरकारों में यह मंत्रालय किसी मजबूत दल की झोली में ही रहा है और ज्यादातर काम देश के लैवल पर न हो कर केवल इलाकाई लैवल पर ही किए गए.
पहले तो अलग से पेश होने वाले रेल बजट में पश्चिम बंगाल, बिहार, रायबरेली, अमेठी जैसे इलाकों को खास सौगातें मिलती रही थीं.
ऐसे में हाल ही में हुए रेल हादसों पर अगर लालू प्रसाद यादव यह तंज कसते हैं कि खूंटा बदलने से नहीं, बल्कि संतुलित आहार देने व खुराक बदलने से भैंस ज्यादा दूध देगी, तो इसे महज एक राजनीतिक बयान नहीं समझना चाहिए, बल्कि इस को गंभीरता से देखना चाहिए. सत्ता बदलने से या किसी मंत्री का मंत्रालय बदल देने से रेलवे का कोई भला नहीं हो पाएगा.
बेहतर होगा कि रेलवे का भ्रष्टाचार, काम करने का गैरजिम्मेदाराना रवैया खत्म हो और रेलवे स्टाफ व मंत्रालय जनता के प्रति जवाबदेह बनें.