असम के कामरूप जिले के चौउतारा गांव की रहने वाली आईमोना खातून नैशनल रजिस्टर औफ सिटीजंस यानी एनआरसी केंद्र में उपलब्ध सूची में अपना नाम खोजखोज कर थक चुकी है. उस का नाम तो दर्र्ज नहीं है पर उस के पति कासिम अली और 2 बेटियों जसमीना (8) व असमीना खातून (4) के नाम दर्र्ज हैं.
खातून अपनी दुखभरी दास्तां यों बयां करती है कि एनआरसी की पूरी प्रक्रिया के दौरान लाइनों में लग कर मैं ने और मेरे पति ने परिवार से संबंधित जानकारी के साथ एनआरसी के सेवा केंद्र में आवेदन जमा करवाए थे. बदले में केंद्र की ओर से हमें पक्की रसीद मिली थी.
कुछ इसी प्रकार बिहार के मधुबनी जिले के जोकहर के निवासी दिवंगत भोला शेख के 65 वर्षीय पुत्र अजहर अली 1982 में बिहार से असम आए और यहीं बस गए. इन का विवाह छयगांव की रहने वाली अमीरुन नेशा के साथ हुआ. अजहर के 2 बेटे और 3 बेटियां हैं. एनआरसी के मसौदे में अजहर की पत्नी और 2 बेटियों के नाम सूची में हैं पर इन का और इन के बेटे अजमुद्दीन अली व बेटी अनवारा बेगम के नाम सूची में नहीं हैं.
वे कहते हैं, ‘‘इस में मेरा क्या कुसूर है? मैं भारतीय नागरिक हूं और मैं ने सारे दस्तावेज जमा भी करवाए, फिर भी मेरा और मेरे बेटे व एक बेटी के नाम 40 लाख वाले संदिग्ध लोगों की सूची में रख दिए गए. दूसरी ओर देश के पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के रिश्तेदार, असम की एक महिला पूर्व मुख्यमंत्री सैयदा अनोवारा तैमूर के साथसाथ कई पूर्र्व विधायकों तथा बिहार व उत्तर प्रदेश से यहां आ कर बसने वालों में से कइयों के नाम सूची से गायब हैं.
दरअसल, बात सिर्फ 40 लाख घुसपैठियों की नहीं है. सरकार ने इन के अलावा करीब 2 करोड़ 80 लाख लोगों के सिर पर नागरिकता की तलवार लटका दी है. कहींकहीं तो हिंदू परिवार में मुसलमान व्यक्ति का नाम एकसाथ सूची में है. जिन लोगों के नाम सूची से गायब हैं वे चिंतित और घबराए हुए हैं कि अब क्या होगा.
आखिर क्यों सरकार ने इतने लोगों को नागरिकता के सवाल पर कठघरे में खड़ा कर दिया है?
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का कहना है कि जिन लोगों के नाम एनआरसी में नहीं हैं वे घुसपैठिए हैं. इन से देश की सुरक्षा के लिए खतरा है. इन लोगों के कारण राज्य के संसाधनों पर काफी दबाव पड़ रहा है और राज्य के मूल नागरिक तकलीफ झेल रहे हैं.
राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर कुछ दस्तावेजों के आधार पर तैयार किया गया है. इस में यह नहीं देखा गया कि कई वैध नागरिकों के पास ये दस्तावेज न हों और अवैध नागरिकों ने नकली दस्तावेजों के आधार पर अपने नाम शामिल करवा लिए हों. इस से वैध नागरिक कठघरे में खड़े हो गए हैं.
दरअसल, असम से बंगलादेशी घुसपैठियों को खदेड़ने की मांग को ले कर अखिल असम छात्रसंघ द्वारा ऐतिहासिक असम आंदोलन चलाया गया था जिस में 855 लोगों को जानें गंवानी पड़ी थीं. बाद में 1983 में यहां के नेल्ली नरसंहार में 7 हजार लोगों के कत्लेआम जैसे जघन्य मामलों के कईर् सालों बाद राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की दूसरी सूची जारी की गई.
एनआरसी की सूची जारी होने के बाद कई लोगों ने खुशी जाहिर की तो कई गुस्से में हैं. सूची जारी होने के पश्चात असम में धीरेधीरे नफरत का जहर घुलने लगा है. हाड़तोड़ मेहनत से भूखप्यास बुझाने वाली प्रदेश की धरती क्या खून से लाल होगी. अभी तक तो सबकुछ ठीक है पर राज्य और बाहर की राजनीतिक पार्टियां वोटबैंक की सियासत का जो खेल खेल रही हैं उस में ज्यादा स्वाद भाजपा को मिल रहा है.
कब हुई शुरुआत
प्रदेश में असमिया और गैरअसमिया को ले कर 1950 से टकराव होना शुरू हुआ. पर 1971 में बंगलादेश बनने के बाद तकरीबन 10 लाख बंगलादेशी नागरिकों ने असम में शरण ली. बाद में 9 लाख बंगलादेशी नागरिक वापस अपने देश लौट गए थे. आगे चल कर चोरीछिपे बंगलादेशी नागरिकों की असम में घुसपैठ जारी रही. इसे देख कर यहां के स्थानीय लोगों को भय सताने लगा कि ये संदिग्ध नागरिक यहां कुछ भी कर सकते हैं.
संदिग्ध नागरिकों को राज्य से खदेड़ने को ले कर असम छात्र संघ (आसू) ने आंदोलन की शुरुआत की. 6 साल चले आंदोलन का खात्मा 14 अगस्त, 1985 को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और आंदोलनकारी नेताओं के बीच हुई बैठक के बाद हुआ. समझौते के बाद आंदोलनकारी नेताओं ने असम गण परिषद नाम से एक राजनीतिक पार्टी बनाई और 2 बार राज्य में इन की सरकार रही पर वह सरकार भी राज्य में घुसपैठियों की रोकथाम में नाकाम रही.
असम में बांग्ला भाषा
असम में पहले बांग्ला भाषा का प्रचलन था. 1837 में ब्रिटिश सरकार ने एक कानून बना कर देश के तमाम राज्यों के न्यायालयों, स्कूलों और कालेजों में स्थानीय भाषा को लागू करने का आदेश दिया था. पर विंडबना यह रही कि असम उस समय बंगाल में शामिल था और ऐसे में असम में असमिया भाषा के स्थान पर बांग्ला भाषा को ही लागू किया गया. हालांकि इस का विरोध आनंदराम ढेकियाल फुकन ने किया था. फुकन की मृत्यु के सालों बाद यानी 1872 में लैफ्टिनैंट गवर्नर जौर्ज केश्वेल के निर्देश के बाद असम में असमिया भाषा की शुरुआत हुई.
40 लाख कोई मामूली संख्या नहीं है. विश्व में ऐसे कई देश हैं जिन की कुल आबादी 40 लाख से भी कम है. राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का दूसरा और अंतिम मसौदा जारी होने के बाद 40 लाख
7 हजार 707 लोगों के नाम लिस्ट से गायब हैं और इसी संख्या को भारतीय जनता पार्टी घुसपैठियों की संख्या मान कर चल रही है.
खुद को भारतीय साबित करने के लिए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में प्रदेश में रहने वाले 3 करोड़ 29 लाख 91 हजार 358 लोगों ने आवेदन किए थे. 30 जुलाई को जारी की गई सूची में 2 करोड़ 89 लाख 83 हजार 668 लोगों के नाम, पते और फोटाग्राफ हैं.
इस पूर्वोत्तर राज्य असम की समस्या है कि बंगलादेशी नागरिकों को भारतीय नागरिकता मिल जाती है तो असमिया लोगों के अल्पसंख्यक होने के खतरे की घंटी बजनी शुरू हो जाएगी.
हालांकि सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि जब तक एनआरसी की फाइनल सूची जारी नहीं होती तब तक किसी को घबराने की आवश्यकता नहीं है.
असली नागरिक तो कठघरे में हैं जबकि वास्तविक घुसपैठियों ने नागरिकता के दस्तावेज बना लिए. मूल नागरिकों के साथ दस्तावेज जमा कराने की व्यावहारिक दिक्कतें हो सकती हैं. 1971 के बाद अगर भारत के किसी हिस्से से कोई नागरिक असम चला गया और वह वहां इतने सालों में कई घर बदल चुका हो तब क्या उस के पास रिहाइश का कोई सुबूत मिल सकता है?
आधार कार्ड आने से पहले ये लोग क्या प्रमाण देंगे. अगर कोई नागरिक अपने मूल गांव, कसबे या शहर भी लौट कर अपनी नागरिकता का कोई प्रमाण असम से चल कर लेने आएगा तो उसे कम से कम 10 दिन लगेंगे. ऐसे में वह एनआरसी की सूची में कैसे शामिल हो सकता है.
5 हजार रुपए दो, एनआरसी लो
असम में रहने वाले हिंदीभाषियों का एक संगठन है, पूर्वोत्तर हिंदुस्तानी सम्मेलन. इस का मुख्य कार्यालय गुवाहाटी स्थित फैंसी बाजार में है. सम्मेलन ने बाकायदा अखबारों में विज्ञापन दे कर कहा कि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में नाम दर्ज कराने के लिए आजीवन सदस्य और साधारण सदस्य होना जरूरी है. साधारण सदस्यों के लिए 100 रुपए और आजीवन सदस्यों के लिए 5 हजार रुपए फीस है. ये पैसे संगठन के बैंक खाते में जमा कराने होते हैं. इस के बाद एनआरसी में नाम शामिल कराने का काम शुरू किया जाता है.
40 लाख में सब घुसपैठिए नहीं
प्रदेश की एनआरसी की सूची से बाहर 40 लाख लोगों में सब घुसपैठिए नहीं हैं. एनआरसी के प्रदेश समन्वयक प्रतीक हजेला का कहना है कि सभी नागरिकों को भारतीयता साबित करने का एक और मौका दिया जाएगा, ताकि अंतिम सूची तैयार कर के घुसपैठियों का असली आंकड़ा सामने रखा जा सके. पर इस के पहले लोकसभा में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने सूची से बाहर किए गए 40 लाख से अधिक लोगों को घुसपैठिया करार दिया था.
एनआरसी में घुसपैठियों के नाम
30 जुलाई को जारी एनआरसी में दर्ज प्रदेश के मोरीगांव जिले के 39 परिवारों के 200 सदस्य बंगलादेशी हैं, लेकिन इन सभी का नाम एनआरसी की सूची में शामिल है. विदेशी न्यायाधिकरण में चल रहे मामले को छिपाने और गलत पते दे कर इन घुसपैठियों ने एनआरसी की सूची में अपना नाम दर्ज करवा लिया.
दरअसल, घुसपैठियों की समस्या भारत में ही नहीं है, बदलते हुए सामाजिक, आर्थिक माहौल में दुनियाभर में गरीबी, भुखमरी, बेकारी के चलते और सब से बड़ा कारण आतंकवाद के प्रभाव के चलते करोड़ों लोग विस्थापित हो रहे हैं. ये लोग अपनी बेहतरी के लिए निकटवर्ती देशों में शरण के लिए घुस रहे हैं. कहींकहीं सरकारें इन्हें शिविरों में रख रही हैं तो कहीं इन्हें नागरिकता दे कर अपने देश के समान नागरिकों की तरह अधिकार प्रदान करती हैं.
पिछले एक दशक से अफगानिस्तान, इराक, सीरिया युद्ध के दौरान हजारों लोग देश छोड़ने को मजबूर हुए. इन लोगों के लिए अमेरिका, ब्रिटेन, जरमनी जैसे देशों ने अपनी सीमाएं खोल दीं. हर व्यक्ति को हवा में सांस लेने, पानी पीने, घूमनेफिरने का जो प्राकृतिक अधिकार है, लोकतंत्रों का भी तकाजा है कि यही प्राकृतिक हक सब को मिले, चाहे नागरिकता प्राप्त हो या न हो.
भारत दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र है पर अफसोस है कि यहां की केंद्र सरकार धर्म, जाति के आधार पर राजनीतिक नफानुकसान वाली नीतियों पर चल रही है.
एक लोकतांत्रिक देश का दायित्व है कि वह बिना नस्ल, धर्म, जाति, भाषा का भेद किए नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराए लेकिन सरकार इस मामले में हिंदूमुसलमान का खेल खेल रही है. भाजपा शुरू से ही बंगलादेशी मुसलमानों का विरोध करती रही है. उधर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी समेत कांग्रेस इन तथाकथित बंगलादेशी लोगों का बचाव करती आई हैं.
भाजपा इन मुसलमानों के नाम पर ममता बनर्जी और कांग्रेस दोनों पर हमले साध रही है और देश में यह संदेश देना चाहती है कि बंगलादेशी मुसलमानों की वजह से देश के नागरिकों के लिए संसाधनों का अभाव हो रहा है.
हमारे यहां नेताओं और धर्मगुरुओं द्वारा ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ जैसी अच्छी बातों के प्रवचन दिए जाते हैं पर हकीकत में हम धार्मिक, जातीय, भाषायी, क्षेत्रीयता की संकीर्ण सोच से गहरे तक ग्रस्त हैं. हम ने धर्म द्वारा बताई गईर् तमाम संकीर्णता को अपना लिया है.
समाज का दोहरापन हर जगह झलकता है. विदेशियों को शरण देना छोड़ हमारे यहां तो अपने लोगों को ही निर्वासित किया जाता रहा है. हिंदू धर्म के नियम के अनुसार बालविधवाओं को खुद अपने घर से निर्वासित कर दिया जाता है. आज वाराणसी, वृंदावन, इलाहाबाद, हरिद्वार में हजारों विधवाएं हिंदू धर्म के आदेशों का दंश झेल रही हैं.
हमारे अपने सैनिक विदेशी दुश्मनों से नहीं, अपनों से ही लड़ते हुए मारे जा रहे हैं.
किसी भी सरकार को यह हक नहीं है कि वह अपने ही देश के नागरिकों से उस की नागरिकता का सुबूत मांगे, उसे नागरिकता के कठघरे में खड़ा करे. देश के सभी हिस्सों में आज लाखों ऐसे लोग हैं जिन के पास सरकारी बाबुओं के भ्रष्टाचार, बेईमानी, निकम्मेपन के चलते राशनकार्ड, वोटर आईकार्ड, आधारकार्ड नहीं हैं कि जिन्हें वे रिहाइश के सुबूत के तौर पर दिखा सकें.
दुनिया आज ग्लोबल विलेज के तौर पर जानी जाती है. गरीबी, भुखमरी, बेकारी और धर्म के मारे पड़ोसी देशों से कुछ लोग इधर से उधर आजा रहे हैं. ऐसे में भारत को उदारता दिखाते हुए उन्हें अपने यहां अपना लेना चाहिए. इस मानव श्रम का सदुपयोग करने की नीतियां अब विश्व के देशों को सीखनी चाहिए. धर्म के नाम पर नफरत पैदा कर के राजनीतिक फायदा उठाने की सोच को त्यागने से ही देश व समाज का भला होगा.
(साथ में जगदीश पंवार)