देश में अपने हक बनाए रखना उतना ही मुश्किल हो रहा है जितना रोटी कमाना. सरकार की मशीन ऐंसी है कि अच्छेअच्छे हक मांगने वालों की कमर तोड़ देती है. आजकल पुलिस का हथकंडा है कि अगर कहीं जुर्म हुआ है तो किसी भी बेगुनाह को पकड़ कर जेल में ठूंस दो और खूब जुल्म करो. उस के घरवाले अपनेआप जुर्म करने वाले को पकड़ लाएंगे.

यदि असल गुनाहगार नहीं पकड़ा गया तो क्या, 5-7 साल बाद उसे कोई जज छोड़ेगा कि सुबूत तो हैं ही नहीं. बेगुनाह की ङ्क्षजदगी तो गई. 2017 में मध्यप्रदेश के कुरकापाल में माओवादियों ने एक हमला किया तो पुलिस ने गुनाहगारों के नाम पर 112 गरीब फटेहाल आदिवासियों को पकड़ कर जेल में ठूंस दिया जिन्हें जुलाई 2022 में जज ने रिहा किया. इन में से एक मदकम हूंगा जब घर पहुं्र्रचा तो मां मिली, 2 में से एक बेटी मिली जिसे वह पहचान तक नहीं पाया. बीबी किसी और मर्द के साथ रहने चली गई जैसा उन की विरादरी में आम होता है.

आदिवासी क्या मांग रहे हैं. वे चाहते हैं कि जैसे ही रहे हैं, जीने दो पर देश के शासकों की उन की जमीनों पर नजर है, उन की मजूरी पर नजर है, उन की औरतों पर नजर है. जमीन छीन कर वहां या तो खनिज निकाले जाएंगे या खेत बनाए जाएंगे जिन में ये आदिवासी कम दाम पर मजूरी करेंगे, बाकी शहरों में जाएंगे. औरतें चकलाघरों में जाएंगी या ऊंचों के घरों में बर्तन साफ करेंगी.

आदिवासियों को पढ़ाने या सही धारा में डालने में न कांग्रेस ने कोई काम किया न भाजपा ने. ईसाई मिशनरी जरूर कुछ करते रहे जिस से घबरा कर संघ के लोग इन इलाकों में उन लोगों को अपने भगवान दे रहे हैं पर इन से काम वैसे ही लिया जाएगा जैसे राम रावण युद्ध में लिया गया था. लड़ाई जीतने के बाद बाली की फौज को घरों में भेज दिया गया. उन्हें कोई मुआबजा मिला हो, अयोध्या लाया गया हो ऐसा नहीं दिखता.

आज यही दिख रहा है. आदिवासी अगर आवाज उठाता है तो बंदूक के बल पर उस की आवाज दवाई जाती है. वह बंदूक का जवाब बंदूक से देने की कोशिश करता है तो पूरे गांव जला दिए जाते हैं.

अपने हकों को बचाना आदिवासी हो, आम मैदानी इलाकों के किसान हो, सोचने वाले हो, बड़ा मुश्किल होता जा रहा है. न्याय नाम की चीज देश में दिखावटी ज्यादा लगती है क्योंकि असल में सजा तो न्याय की देहरी तक पहुंचने से पहले दे दी जाती है. मुट्ठी भर जज बड़ी साजिशों का खजाना लिए सरकारी मशीनरी के सामने कहां टिक सकते है?

अगर देश में हरेक को न्याय चाहिए तो उसे आवाज उठाने के ढंग सीखने होंगे. संविधान में खुद ऐसे रास्ते हैं जिन्हें बाईपास किया जाता है पर रास्तों को खत्म नहीं किया जा पा रहा. उसी रास्ते पर चलना होगा. आदिवासी हो, सवर्णों की औरतें हो, पिछड़ों हों, दलित हों, अल्पसंख्यक हो, उन्हें अपने को बिकाऊ होने से बचना होगा. कुछ को प्रसाद के पकाने डाल कर जब तक खरीदा जा सकेगा. तब तक न उन का कल्याण होगा न देश का कल्याण होगा.

पुलिस जुल्म आज भी पूरी दुनिया पुराने धाॢमक युगों की तरह कायम है पर इसलिए कि दुनिया की बड़ी जनता आज भी धर्म के नाम पर सरकारें चुन रही हैं. जब तक यह होगा मदकम हूंगा की तरह के आदिवासी सालों साल जेलों में सड़ेंगे.

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