गुरु की महिमा का बखान करने का रिवाज हमारे समाज में बहुत पुराना है. लेकिन यह कड़वा सच है कि आजकल सीधेसच्चे गुरु कम व गुरुघंटाल ज्यादा दिखते हैं.

स्कूलकालेजों में पढ़ाने वाले बहुत से गुरुओं या टीचरों का बुरा हाल है. वे भी खुद को ऐसे गुरु मानते हैं, जिन्हें पूजा जाए, पर काम करने को न कहा जाए. टीचर मोटी तनख्वाह व भरपूर छुट्टियां जैसी सहूलियतें लेते हैं, लेकिन इस के बावजूद ज्यादातर टीचर अपने काम को सही ढंग से अंजाम नहीं देते हैं.

ज्यादातर टीचर अपने घर के आसपास तैनाती को तरजीह देते हैं, ताकि वे दूसरे कामधंधे कर सकें. वे खासतौर पर दूरदराज के इलाकों में जाना ही नहीं चाहते. जहां रहते हैं, वहां पढ़ाते नहीं, इसलिए पढ़ाईलिखाई की बुनियाद लगातार कमजोर हो रही है.

टीचरों द्वारा मन लगा कर न पढ़ाने के चलते बहुत से बच्चे पढ़ेलिखे हो कर भी नाकाबिल रह जाते हैं. इस से बेरोजगारों की भीड़ बढ़ रही है.

बहुत से टीचर मौका मिलते ही पढ़ाना छोड़ कर क्लासों में सो जाते हैं. बीड़ी, सिगरेट, पानतंबाकू, गुटका व शराब जैसी नशीली चीजों का सेवन करते हैं. पैसे के लालच में पेपर आउट व नकल कराते हैं. वजीफे बांटने में हेराफेरी व गड़बड़ी करते हैं.

कई टीचर सारी हदें पार कर छात्रछात्राओं से जोरजबरदस्ती करने तक से भी बाज नहीं आते हैं.

बेशक सारे टीचर ऐसे नहीं हैं, पर बहुत से हैं जो सारे टीचर समाज को बदनाम करते हैं. हैरत की बात है कि अच्छे माने जाने वाले व हड़ताल के लिए हमेशा तैयार रहने वाले टीचर व उन के संगठन कुसूरवार टीचरों को सुधारने या सबक सिखाने की दिशा में कभी कोई कारगर कदम नहीं उठाते हैं.

क्या है वजह

टीचरों द्वारा पढ़ाने में दिलचस्पी न लेने की एक बड़ी वजह उन का निकम्मापन व ट्यूशन का बढ़ता कारोबार है. इस के अलावा भाईभतीजावाद, सिफारिश व घूस के बल पर बहुत से ऐसे नाकाबिल लोग भी टीचरों की जमात में शामिल हो गए हैं, जो खुद किसी लायक नहीं हैं.

पिछले दिनों टीचरों के ऊपर सोशल मीडिया में वायरल हुआ एक वीडियो खूब सुर्खियों में रहा था. उस में एक पत्रकार ने गांवदेहात के इलाकों में चल रहे स्कूलों में पढ़ाने वालों की पोल खोली थी.

उस वीडियो में केवल टीचर ही नहीं, बल्कि कई प्रिंसिपल भी देश के प्रधानमंत्री, प्रदेश के मुख्यमंत्री व देश की राजधानी तक का नाम भी नहीं बता सके थे.

चंद नामी, बेहद महंगे प्राइवेट स्कूलों को छोड़ कर ज्यादातर सरकारी व निजी स्कूलों की हालत अच्छी नहीं है. इन में पढ़ाने वालों की हालत तो और भी ज्यादा खराब है.

दरअसल, एक बार नौकरी मिल जाने के बाद ज्यादातर टीचरों पर कोई देखरेख या निगरानी नहीं होती है. शिक्षा अधिकारी भी सिर्फ खानापूरी के लिए कागजों में ही चेकिंग करते हैं.

पहले सभी टीचर रोज अपनी डायरी लिखते थे कि किस क्लास में कबक्या पढ़ाया था. प्रिंसिपल उसे चैक करते थे, लेकिन अब यह चलन ही नहीं रहा.

ऐसे टीचरों की गिनती कम नहीं है जो पैसे कमाने के लिए अपनी सारी इज्जत को ताक पर रख कर नाजायज काम करने से भी नहीं चूकते हैं.

पिछले दिनों जब आधारकार्ड के जरीए जांचपरख हुई तो 80,000 से भी ज्यादा टीचर 2-2 जगह से तनख्वाह लेते पकड़े गए. इस के अलावा कई टीचरों के नाम पेपरलीक कांड व नकल कराने के ठेके लेने में आए थे.

करते दूसरे कामधंधे

दरअसल, बहुत से टीचर ट्यूशन व कोचिंग समेत और भी बहुत से दूसरी तरह के कामधंधों में लग जाते हैं. ऐसे बहुत से टीचर देखे जा सकते हैं जो तनख्वाह को बोनस या पैंशन मानते हैं. वे पढ़ाना छोड़ कर धड़ल्ले से खेतीबारी, कारोबार या नेतागीरी करते रहते हैं.

दूरदराज के गंवई इलाकों में चल रहे बहुत से स्कूलों में तो ज्यादातर टीचर रोज पढ़ाने के लिए जाते ही नहीं हैं. ऐसे भी बहुत से टीचर हैं जो सिर्फ हाजिरी लगाने के लिए स्कूल जाते हैं, इस के बाद वे वहां से लापता हो जाते हैं.

खराब हैं हालात

टीचरों की कामचोरी का सीधा नुकसान बच्चों को उठाना पड़ता है. वे पढ़ाई में कमजोर रह कर फेल हो जाते हैं. इस के अलावा उन के मांबाप को भी माली नुकसान भुगतना पड़ता है.

सरकारी स्कूलों की खस्ता हालत देख कर ज्यादातर मांबाप अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में दाखिला कराते हैं. वहां पढ़ाना अब हर आम इनसान के बस की बात नहीं रह गई है, क्योंकि निजी स्कूलों में मांबाप को फीस वगैरह के नाम पर तरहतरह से लूटा जाता है.

पढ़ाईलिखाई को बढ़ावा देने के नाम पर सरकारें पानी की तरह पैसा बहा रही हैं. दोपहर को भोजन भी खिला रही हैं, लेकिन क्या इस से अनपढ़ों व कमपढ़ों की गिनती कम हुई?

टीचरों की शिकायत है कि सरकारें अकसर उन्हें चुनाव, जनगणना व वोट बनाने जैसे दूसरे कामों में लगा देती हैं इसलिए वे अपना काम ठीक से नहीं कर पाते हैं. आमतौर पर टीचर कम होने व क्लासों में ज्यादा बच्चे होने से भी वे पूरा ध्यान नहीं दे पाते हैं.

उपाय भी हैं

राजकाज चलाने वाले ओहदेदारों के बच्चे खूब महंगे व बढि़या स्कूलों में पढ़ते हैं इसलिए वे मौजूदा शिक्षा व्यवस्था के हालात व उस का लैवल देखने की जरूरत ही नहीं समझते. सरकारी स्कूलों के हालात काफी बदतर हैं. गंवई इलाकों में हालात और भी ज्यादा खराब हैं.

देश की तकरीबन 80 फीसदी आबादी कम आमदनी होने के चलते अपने बच्चों को महंगी तालीम नहीं दिला पाती है, इसलिए उन्हें सरकारी स्कूलों का मुंह ताकना पड़ता है.

नेता, अफसर व धर्मगुरु सब यही चाहते हैं कि ज्यादातर लोग अनपढ़ रहें ताकि वे उन का मुकाबला न करें व उन्हें आसानी से उल्लू बनाया जा सके, इसलिए सरकार के भरोसे रहने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है. अब तो हर बस्ती के बाशिंदों का जागरूक होना जरूरी है. वे एकजुट हों और खुद जा कर देखें कि कहां, कौन व कितने टीचर तैनात हैं? इस के अलावा बच्चों से भी टीचरों के बारे में फीडबैक लेना चाहिए.

तालीम के नाम पर खर्च हो रहा पैसा करदाताओं की मेहनत का है, इसलिए हर जिम्मेदार नागरिक को आगे आना चाहिए. थोड़ा वक्त निकाल कर अपने गलीमहल्ले में पास के सरकारी स्कूल में जाना चाहिए. वहां यह देखना जरूरी है कि कितने टीचर रोज वक्त से आतेजाते हैं? वे क्या और कैसा पढ़ाते हैं?

अगर पढ़ाने वालों पर निगाह, निगरानी, शिक्षा विभाग का सोशल आडिट व सूचना के अधिकार की नकेल हो तो सुधार जरूर होगा.

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