‘‘उठो... आंगनबाड़ी जाना है न?’’ मां लालू को जगाने की कोशिश कर रही थी.
‘थोड़ी देर और...’’ लालू ने अंगड़ाई लेते हुए कहा.
‘‘मुझे और तेरे बापू को काम पर जाने में रोज देरी होती है. चलो, तैयार हो जाओ,’’ मां झंझला कर बोली, तो लालू को उठना पड़ा.
मां ने बासी और कड़क रोटी चायनुमा पानी में डुबो कर नरम की थी. टिन की थाली में वही रोटी परोस कर लालू के सामने सरका दी.
लालू वही नरम और बासी रोटी बड़े चाव से खाने लगा.
‘‘ढंग से खाओ, कपड़ों पर मत गिराना,’’ मां बोली.
‘‘क्यों डांटती हो? बच्चा ही तो है,’’ बापू लालू की तरफ से बोला.
‘‘कल ही कपड़े धोए हैं,’’ मां के मन में साबुन का हिसाबकिताब चल रहा था.
इस के बाद मां और बापू चाय का पानी पी कर काम पर चले गए.
‘‘तुम ने रोटी नहीं खाई?’’ लालू ने पूछा, ‘‘ठकुराइन के घर की रोटी बहुत अच्छी होती है.’’
‘तुम्हारे उठने से पहले ही खा ली थी बेटा,’ मां और बापू दोनों सफाई से झठ बोल गए.
मां गांव के प्रधान के घर पर झाड़ू, बरतन, सफाई करती थी और बापू उन
के खेतों में मजदूर था. इन के घर में चूल्हा जलता था, तो सिर्फ चाय बनाने के लिए, वह भी गुड़ वाली चाय. वरना जो जूठा, बचा हुआ खाना मिलता, उसी पर वे लोग अपना गुजारा कर लेते थे.
मां और बापू दोनों दिनरात मजदूरी में जुटे रहते. बापू को कभी काम मिलता, तो कभी नहीं. मां को पुराने कपड़े, सामान, बचा हुआ खाना मिलता था.
प्रधान के घर में खाना खा कर मां अपना गुजारा कर लेती और अच्छा खाना मिले भले बासी ही सही, अपने बेटे लालू के लिए बांध कर घर ले आती. 5 साल का लालू इसी साल से आंगनबाड़ी में जाने लगा था.
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