सालभर से मैं यानी कमल घर नहीं जा पाया था. पहलेपहल तो काम से छुट्टी ही नहीं मिली और जब तक छुट्टी मिलने की उम्मीद जगी, कोरोना अपनी हद पर पहुंच चुका था. ऐसे में हर जगह लगे लौकडाउन के चलते जिंदगी 10 बाए 10 फुट के उस कमरे तक सिमट कर रह गई, जो रातभर सोने के लिए भी नाकाफी था. ऐसे में गांव जाना तो दूर कमरे से बाहर कदम रखना ही बैन हो गया. बस मैं था और मेरा मोबाइल फोन. कोई संकेत मिलता तो सब्जी वगैरह खरीद लाता और आ लेटता अपने घोंसले में. गनीमत थी कि किन्हीं वजहों से पिछले 3 महीने की तनख्वाह गांव नहीं भिजवा पाया था, वरना खाने के लाले पड़ते, सो अलग. सुबह मैं बड़े इतमीनान से उठता. नित्य क्रिया से फारिग हो कर नाश्ता बना कर खाता और बैठ जाता कभी मोबाइल फोन पर इंटरनैट चला कर,

तो कभी टैलीविजन खोल कर. ऐसे ही कामों में पूरा दिन बीत जाता. पहलेपहल तो गांव से ढेरों फोन आया करते मेरी खैरखबर लेने और गांव की खैरियत की खबर देने के लिए. खैरियत भी कैसी? जितने भी फोन आते, बस यही सूचना होती कि अमुक को कल कोरोना हुआ था और आज चल बसा. उन दुखद सूचनाओं से मैं इतना आजिज आ गया कि गांव से आने वाले फोन रिसीव करने ही बंद कर दिए. कभी मन करता तो मां को फोन लगा लेता या फिर भैया से बात हो जाती. ऐसे ही एक दिन मां से बात करने के लिए फोन लगाया था, मगर फोन मां के बजाय भाभी ने उठाया. भाभी से बात करना मैं कम ही पसंद करता था. पहली बात तो यह कि भाभी अनपढ़ थीं, ऊपर से इतनी बातूनी कि गांवभर की खबर एक सांस में बता दिया करती थीं. पड़ोस की चाची का मां से झगड़ा हुआ था,

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