गंगा गांव की एक भोलीभाली और बेहद खूबसूरत लड़की थी. उस की मासूम खूबसूरती को वैसे तो शब्दों में ढालना बहुत ही मुश्किल है, पर यह समझ लीजिए कि गंगा को देख कर ऐसा लगता था, जैसे खेतों की हरियाली उसी पर छाई हुई है...
अल्हड़, मस्त गंगा पूरे गांव में घूमतीफिरती... कभी गन्ना चूसते हुए, तो कभी बकरी के बच्चे को पकड़ने के लिए... गांवभर के मुस्टंडे आंखें
भरभर कर उसे देखा करते और ठंडी आहें भरते थे, पर गंगा किसी को घास नहीं डालती थी.
गांव के सरपंच के बेटे की शादी का मौका था... सरपंच के घर खूब रौनक थी... दूरदराज के गांवों से भी ढेरों मेहमान आए थे.
गंगा के पिता लक्ष्मण सिंह और सरपंच में गहरी दोस्ती थी, सो गंगा का पूरा परिवार उस शादी में घराती के रोल में बिजी था. कई सारे इंतजाम लक्ष्मण सिंह के ही जिम्मे थे...
गंगा की मां पार्वती घर के कामों को निबटाने में सरपंच की पत्नी का हाथ बंटा रही थी. गंगा के लिए तो यह शादी जैसे कोई त्योहार, कोई उत्सव जैसी थी... नएनए कपड़े पहनना, सजनासंवरना और नाचगाने में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेना...
‘‘अरी ओ गंगा... कुछ काम भी कर लिया कर... सारा दिन यहां से वहां मटकती फिरती है...’’ पार्वती ने कहा.
‘‘अरी अम्मां, काम करने के लिए तू तो है... अभी तो मेरी खेलनेकूदने की उम्र है,’’ गंगा खिलखिलाते हुए बोली.
‘‘देख तो... ताड़ जैसी हो गई है... कल हाथ पीले हो गए, तो अपनी ससुराल में खिलाएगी... पत्थर...’’ पार्वती गुस्सा दिखाते हुए बोली.
‘‘अम्मां... तू फिक्र मत कर... मेरी ससुराल में नौकरचाकर होंगे... मैं नहीं करूंगी कोई कामधाम,’’ गंगा ने तपाक से जवाब दिया.
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