सामयिक घटनाओं पर ओजपूर्ण और क्रांतिकारी कमैंट्री करने वाले नागो दादा ने जब बासमती चावल का भाव सुना तो उन्हें क्रांति के अलावा कोई रास्ता नहीं दिखा. लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि उन्होंने राजनीतिक कमैंट्री तो जारी रखी लेकिन क्रांति की बात करनी छोड़ दी और हिंसक विचारों का पूरी तरह परित्याग कर दिया.
‘‘एक राउंड और चाय पिला दो,’’ अखबार को मोड़ कर बगल की कुरसी पर लुढ़कते हुए नागो दादा ने कहा तो उन की पत्नी नीलिमा भड़क उठीं.
‘‘सुबह से खाली पेट 5 कप चाय पी चुके हैं. अल्सर हो जाएगा तो डाक्टर और अस्पताल का चक्कर लगाते रहिएगा. डायबिटीज तो हो ही चुकी है और क्याक्या बीमारी पालिएगा. मेरा तो जीवन बरबाद हो गया समझो. घर वालों ने किस के पल्ले बांध दिया है,’’ बड़बड़ाती हुई नीलिमा अंदर जाने लगीं.
‘‘कभी तो अच्छा बोला करो. चाय पिए बिना प्रैशर बनता ही नहीं, क्या करें.’’
‘‘प्रैशर, हुंह, शरीर न हुआ स्टीम इंजन हो गया...’’
‘‘जाने दो, तुम को तकलीफ है तो हम खुद ही बना लेते हैं. नहीं तो शनि को बोल दो, बना देगी.’’
‘‘उस को पढ़नेलिखने दीजिएगा या नहीं. दिनरात आप ही की सेवा में लगी रहेगी तो कंपीटिशन की तैयारी क्या खाक करेगी. हमारी जिंदगी का तो जो हाल किया सो किया, उस को तो चैन से रहने दीजिए. चाय बना देती हूं लेकिन इस के बाद 3-4 घंटे चाय तो चाय, उस की पत्ती भी देखने को नहीं मिलेगी.’’
‘‘ठीक है भई, अभी तो दो.’’
यह रोज की दिनचर्या थी. नागो दादा दिन के एकडेढ़ बजे तक चाय पर चाय पीते जाते और 2-3 बजे तक तैयार हो कर खाना खाते. फिर अपनी बाइक ले कर निकल जाते.
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