कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

होनहार जैसी बात हुई. बंजारों का मुखिया राव रूढ़ सांचौर से गिरनार जाते समय रास्ते में चंपा कुम्हार के गांव रुका. लखपति बंजारा खूब धनवान था. हजारों बैलों पर उस का माल लदा हुआ था. करोड़ों का व्यापार था उस का. चंपा ने सोचा, ‘राव रूढ़ से सोरठ की शादी की बात की जाए तो ठीक रहेगा. यह बहुत ज्यादा धनवान होने के साथ जाति में बराबर पड़ता है. फिर मेरा धन सोरठ उस के धन से कोई कम थोड़े ही है.’

रूढ़ की हो गई सोरठ चंपा ने राव रूढ़ से बात की. रूढ़ ने सोरठ को देखा. सोरठ को एक बार देखने के बाद कौन मना कर सकता था. राव रूढ़ के साथ सोरठ की शादी हो गई. उस ने एक लकड़ी का जालीदार महल बनवाया, जालियों में रेशम और मखमल के परदे लगवाए. महल के नीचे 4 बड़ेबड़े पहिए थे और महल को खींचने के लिए 6 नागौरी बैल जोड़े.

सोरठ को उस महल में बैठाया. राव रूढ़ जहां भी जाए, सोरठ का महल भी उस के साथ चले. बींझा को सोरठ की शादी की खबर मिली. पहले तो दुख हुआ. फिर खुद ही सोचा कि बंजारे तो जगहजगह घूमते ही रहते हैं, कभी न कभी राव रूढ़ गिरनार तो आएगा ही.आधी रात का समय, जुगनू एक डाल से दूसरी डाल पर जा रहे थे तो ऐसा लग रहा था जैसे छोटेछोटे तारे आकाश में

टिमटिमा रहे हों. रिमझिमरिमझिम करती हलकी फुहारें पड़ रही थीं. बींझा अपने महल के सब से ऊंचे मालिए पर बैठा सोरठ के बारे में सोच रहा था. पहाड़ से आती बैलों के गले में बंधी घंटियों की आवाज उसे सुनाई पड़ी. वह चौंका. कहीं राव

रूढ़ की वालद तो नहीं आ रही है? थोड़ी देर बाद उसे मशालें जलती नजर आईं. सवार को दौड़ाया, ‘‘देख कर आ, गिरनार पहाड़ पर क्या हलचल हो रही है?’’ सवार कुछ देर में खबर ले कर वापस आया, ‘‘किसी बंजारे की वालद है. हजारों बैल हैं, लकड़ी के महल में उस की स्त्री भी साथ है.’’

बींझा समझ गया, राव रूढ़ की वालद है. बींझा ने जा कर राव खंगार को जगाया, ‘‘राव रूढ़ आ रहा है.’’ राव खंगार ने आधी रात नगर कोतवाल को बुला कर हुक्म दिया, ‘‘वालद को अच्छे स्थान पर ठहराना, डेरे तंबू का इंतजाम कर देना. किसी चीज की उन्हें तकलीफ न हो.’’ उधर जगह साफ हो रही थी, डेरे तंबू लग रहे थे और खानेपीने का इंतजाम होने लगा तो इधर बींझा की आंखों की नींद उड़

गई. वह यही सोच रहा था कि कब दिन निकले, कब मैं राव रूढ़ के डेरे पहुंचूं. पौ फटी, सोरठ की नींद उड़ी. मखमल का परदा हटा उस ने जाली से बाहर झांका. उसी वक्त बींझा भी बंजारे के डेरे जा पहुंचा. बींझा और सोरठ की नजर मिली, पुरानी मुलाकात याद आई. दोनों एकदूसरे को देखते ही रहे. उन्होंने एकदूसरे के दिल की बात आंखों में पढ़ ली.

राव खंगार ने राव रूढ़ को महल में बुलाया. उस का आदरसत्कार किया, मानमनुहार की. उस से सामान खरीदा. उस ने उस के सामान की मुंहमांगी कीमत दी. 10-15 दिन एकदूसरे की आंखों की मूक भाषा आंखों में पढ़ ली. राव खंगार से राव रूढ़ ने जाने की इजाजत मांगी तो राव खंगार ने उसे 2-4 दिन और रुकने के लिए कहा. बींझा का बंजारे के डेरे पर रोज ही आनाजाना रहता. वहां बींझा और सोरठ की नजरें मिलतीं, उन का दिन सफल हो जाता,

एकदूसरे को देख धन्य हो जाते. बींझा ने राव खंगार से कहा, ‘‘बंजारा तो अब जाने की जल्दी कर रहा है. अगर सोरठ को यहीं रखना है तो राव रूढ़ को चौपड़ खेलने बुलाओ.’’राव रूढ़ चौपड़ खेलने आया. गलीचे पर चौपड़ बिछाई गई. चांदी के कटोरे में अफीम घोली गई. हाथी दांत का पासा फेंका जाने लगा. बींझा चौपड़ का नामी खिलाड़ी था. देखते ही देखते उस ने राव रूढ़ की आधी वालद जीत ली. राव रूढ़ ने देखा कि ऐसे तो अपनी सारी संपत्ति बींझा जीत लेगा, लेकिन खेलने के बीच उठना भी शर्म की बात थी.

उस ने सोचा कि इस दांव में सोरठ को लगा देना चाहिए. हार गया तो क्या हुआ, औरत ही खोऊंगा, धन रहा तो सोरठ जैसी एक नहीं, 10 और औरतें मेरे कदमों में आ खड़ी रहेंगी. राव रूढ़ ने सोरठ को दांव पर लगा दिया. पासा फेंका जाने लगा, राव रूढ़ सोरठ को चौपड़ के दांव में हार गया. बींझा ने जीती हुई आधी वालद राव खंगार के महलों में पहुंचा दी और लकड़ी के महल में सोरठ को बैठा अपने डेरे ले चला.

राव खंगार ने लकड़ी का महल बींझा के डेरे की ओर जाते देखा तो हुक्म दिया, ‘‘लकड़ी का महल और सोरठ को मेरे महल में ले कर आओ.’’ मन मार कर बैठ गया बींझा

राव खंगार गढ़ गिरनार का स्वामी था. उस का हुक्म भला कौन टाल सकता था. सिपाहियों ने जा कर आधे रास्ते लकड़ी का चलताफिरता महल रोका, बैलों के मुंह खंगार के महलों की तरफ कर दिए. बींझा जहां था, वहीं का वहीं खड़ा रह गया. सोरठ का मुंह उतर गया. सोरठ राव खंगार के जनाने महल में पहुंचा दी गई.

खंगार ने रूढ़ से जीता सारा धन बींझा के डेरे पहुंचाया. बींझा उस धन को ले कर राव खंगार के पास गया, ‘‘मुझे धन नहीं चाहिए, उसे आप रखो. मुझे तो केवल सोरठ चाहिए.’’

“सोरठ तो मेरे जनाने में पहुंच चुकी है, उसे और किसी को देना मेरे स्वाभिमान के खिलाफ है.’’

बींझा मन मार कर बैठ गया. सिर धुने, सोरठ के विरह में तड़पे. उस की याद में दोहे रचे— ऊंचो गढ़ गिरनार आबू ये छाया पड़े. सोरठ रो सिणगार, बादल सू बात करे. दोहे का भावार्थ ऊंचे गिरनार के ऊंचे गढ़ पर जब सोरठ शृंगार करती है तो पवन के साथ उड़ते बादल भी दो पल उस का रूप देखने रुक जाते हैं. ‘सोरठ रंग री सांवली, सुपारी रे रंग. लूगा जड़ी चरपरी, उड़उड़ लागै अंग.’ (सुपारी के रंग जैसी सांवली

सोरठ की देह की सुगंध से तर हो रही पवन जब गढ़ गिरनार से निकलती है तो सारा गिरनार पहाड़ सुरभित हो जाता है.) ‘सोरठ गढ़ सू उतरी, झट्ïटर रे झणकार. धूज्य गढ़ रा कांगरा, गाज्यो गढ़ गिरनार.’ (सोरठ झांझर पहने जब चलती तो उस के घुंघरुओं की झंकार से गिरनार गढ़ के पहाड़ गूंज उठते हैं. महलों की दीवारें गूंजने लगती हैं.) उधर राव खंगार सोरठ को सिरआंखों पर बैठा कर रखता. सोरठ की हर इच्छा उस के लिए आज्ञा से कम नहीं थी. मुंह से निकलते ही उस के हुक्म की तामील होती, लेकिन वह बींझा की छवि अपने दिल से नहीं निकाल सकी. उस की याद नहीं भुला सकी.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...