Editorial: बिहार में स्पैशल इंटैंसिव रिवीजन (एसआईआर) का मतलब चुनाव सूचियों से विदेशियों को निकालना नहीं है, बल्कि यह जताने के लिए है कि बिहार के या देश के दूसरे राज्यों के मतदाताओं को मालूम रहे कि वोट का हक तो मोदी सरकार का दिया हुआ है, कभी भी वापस लिया जा सकता है.

भारतीय जनता पार्टी आम जनता को यह अहसास कराना चाहती है कि वोट का हक कोई संवैधानिक नहीं है, यह राशन की तरह, मुफ्त बस सेवा की तरह, सरकारी नौकरी की तरह, शौचालय के लिए अनुदान की तरह, सरकारी स्कूल में पढ़ाई की तरह, सरकारी अस्पताल में इलाज की तरह का हक है जो 2014 के बाद दिया गया है और मोदी सरकार चुनाव आयोग के जरीए जब चाहे वापस ले सकती है.

चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने अगस्त में हुई प्रैस कौंफ्रैंस में यही कई बार दोहराया और सुप्रीम कोर्ट में बारबार कहा कि कानून से यह हक मिला है और यह कानून मोदी सरकार जब चाहे जैसे चाहे बदल सकती है.

सदियों से देश का गरीब, शूद्र, अछूत, सवर्णों की औरतें उस सामाजिक कानून के कड़े पहरे में रहे जो पंडितों ने अपने लाभ के लिए बनाए और थोपे. इस से पुजारियों, सरकारी आदमियों और सेठोंको तो जम कर फायदा हुआ, पर आम आदमी हमेशा भूखानंगा रहा. बिहार में तो हाल ज्यादा ही बुरा रहा क्योंकि वहां जाति के सहारे धर्म का जहर गंगा में बुरी तरह घुला हुआ है जिस का पानी हर नदीनाले और कुएं में पहुंचा हुआ है.

वोट के हक ने इस जहरीले पानी को फिल्टर करना शुरू किया था पर बिहार सब से अलग अपवाद रहा जहां वोट का हक आम लोगों को जयप्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर के बावजूद पूरी तरह मिल नहीं पाया. इस की एक वजह शायद यह भी थी कि 1757 से 1857 तक ईस्ट इंडिया कंपनी ने बड़ी गिनती में बिहार के ब्राह्मणों को सेना में भरती किया था और उन्हें अपने ही लोगों को बंदूकों से मारने की ट्रेनिंग दी थी. उस से पहले ब्राह्मण खुद हथियार न उठा कर क्षत्रियों या ऊंचे शूद्रों को इस्तेमाल किया करते थे.

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