3 अप्रैल, 2021. भारतीय जनता पार्टी समेत दूसरे दलों के नेता 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव के प्रचार में मशगूल थे. तब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को अपना असम का दौरा रद्द कर शाम के समय छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर हवाईजहाज से उड़ कर आने को मजबूर होना पड़ा था, क्योंकि बात थी ही कुछ ऐसी कि उन के और केंद्र सरकार के होश फाख्ता हो गए थे.
इस दिन सुबह 11 बजे राज्य के बीजापुर और सुकमा जिलों के बौर्डर के एक गांव टेकलगुडा के नजदीक नक्सलियों और अर्धसैनिक बलों की एक जबरदस्त मुठभेड़ में नक्सलियों ने 24 जवानों को मार गिराया था, जिस से केंद्र सरकार सकते में आ गई थी.
इन जिलों में तैनात अर्धसैनिक बलों को खबर मिली थी कि बड़ी तादाद में नक्सली इस बौर्डर के एक गांव में छिपे हुए हैं, जिन में 50 लाख रुपए का एक इनामी नक्सली नेता मडावी हिडमा भी शामिल था.
सुबह से ही तकरीबन 2,000 जवानों ने इस इलाके को घेर लिया और नक्सलियों की टोह ड्रोन के जरीए लेने लगे. जैसे ही यह बात नक्सलियों को पता चली, तो उन्होंने अपना रास्ता बदल दिया, जिस से जवान चकमा खा गए. यही नक्सली चाहते थे, जो ऊपर पहाड़ी पर छिपे हुए थे. उन्होंने मौका ताड़ते हुए जवानों पर हमला कर दिया.
इस से सकपकाए छिपतेछिपाते जवानों ने जवाबी हमला किया, लेकिन नक्सलियों ने उन्हें 3 तरफ से घेर रखा था. दोनों तरफ से तकरीबन 5 घंटे फायरिंग हुई, जिस में अर्धसैनिक बलों के 24 जवान मारे गए.
12 नक्सलियों के मरने की खबर भी आई, पर हमेशा की तरह बड़ा नुकसान अर्धसैनिक बलों का ही हुआ. घायल जवानों को बीजापुर और रायपुर के अस्पतालों में इलाज के लिए भरती कराया गया और नक्सली भी अपने घायल साथियों को 2 ट्रैक्टरों में भर कर अपने ठिकानों की तरफ ले गए.
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जातेजाते उन्होंने हर बार की तरह मारे गए जवानों के हथियार, जूते वगैरह अपने कब्जे में ले लिए. वे सीआरपीएफ के एक कोबरा कमांडर राकेश्वर सिंह मन्हास को बंधक बना कर अपने साथ ले गए, जिसे 8 अप्रैल, 2021 को एक गिरफ्तार आदिवासी के बदले रिहा भी कर दिया.
खोखली दहाड़
रायपुर और जगदलपुर आए अमित शाह घायल जवानों से मिले और नक्सलियों पर खूब गरजेबरसे कि जवानों की शहादत बेकार नहीं दी जाने जाएगी और जल्द ही नक्सलियों का सफाया कर दिया जाएगा.
वैसे, इस के कुछ दिन पहले ही नक्सलियों ने नारायणपुर में एक और वारदात को अंजाम देते हुए 5 जवानों को मार गिराया था. इस से भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन के हौसले कितने बुलंद हैं.
यह कोई पहला या आखिरी मौका नहीं था, जब नक्सलियों ने सरकार को अपनी ताकत और पहुंच का एहसास कराया हो. इस के पहले भी वे जवानों की हत्या कर के यह जताते रहे हैं कि जब तक सरकार उन की बात नहीं सुनेगी और बातचीत के लिए तैयार नहीं होगी, तब तक उन की 50 साल से चल रही मुहिम से वे कोई सम?ाता नहीं करेंगे.
क्या है नक्सली मुहिम
3 अप्रैल, 2021 की मुठभेड़ के बाद फिर एक बार नक्सलियों और उन की मुहिम की चर्चा जोरशोर से शुरू हुई है कि आखिर वे चाहते क्या हैं और क्यों सरकार लाख कोशिशों के बाद भी उन का खात्मा नहीं कर पा रही है?
नक्सली मुहिम साल 1967 में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के एक गांव नक्सलबाड़ी से हुई थी, जिसे 2 कम्यूनिस्ट नौजवान नेताओं चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने शुरू किया था.
इन लोगों की बात गलत कहीं से नहीं थी कि सत्ता पर रसूखदारों और पूंजीपतियों का कब्जा है, जो किसानों और गरीबों का शोषण करते हैं. सरकार इन्हीं के इशारे पर नाचते हुए इन के भले के लिए ही सरकारी नीतियां बनाती है.
धीरेधीरे कई और ऐसे नौजवान इन से जुड़ने लगे, जो यह मानते थे कि जमीन उसी की होनी चाहिए जो उस पर खेती कर रहा है, न कि उस की जो अपनी हवेलियों में बैठ कर मुजरे सुनता है, शराब के नशे में धुत्त रहते हुए रंगरलियां मनाता है और गरीबों, जो आमतौर पर दलित, आदिवासी और पिछड़े होते हैं, से खेत में गुलामी कराता है.
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पैदावार के समय ये जमींदार उपज का एक बड़ा हिस्सा हंटर और कोड़ों के दम पर खुद रख लेते हैं और मजदूर को गुजारे लायक ही देते हैं, जिस से वह जिंदा रहे और खेतों में काम करते हुए इन के गोदाम अनाज से भरता रहे.
जल्द ही ऐसे लोगों ने इंसाफ के लिए हथियार उठा लिए और अमीरों का कत्लेआम शुरू कर दिया. जमींदारों, सूदखोरों और साहूकारों से तंग आए किसानमजदूरों ने इन का साथ दिया और देखते ही देखते नक्सली मुहिम आंध्र प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र, बिहार, मध्य प्रदेश के इलाकों में तेजी से फैल गई.
जब बड़े पैमाने पर हिंसा होने लगी, तब सरकार को होश आया, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी. अब आलम यह है कि नक्सली कहीं भी हत्याएं कर देते हैं, लेकिन ज्यादातर उन के निशाने पर रहते तो अर्धसैनिक बल ही हैं, जिन्हें उन के सफाए के लिए नक्सली इलाकों में तैनात किया गया है.
हल क्या है
50 साल में नक्सली खुद कई गुटों में बंट गए हैं, लेकिन उन का मकसद नहीं बदला है. हाल यह है कि आज 11 राज्यों के 90 जिलों में इन की हुकूमत चलती है, जिस को ‘रैड कौरीडोर’ कहा जाता है. ये सभी इलाके आदिवासी बाहुल्य हैं और घने जंगलों वाले भी हैं.
हर मुठभेड़ के बाद यह सवाल मुंहबाए खड़ा हो जाता है कि आखिर नक्सली गलत कहां हैं और सही कहां हैं? यह ठीक है कि अब जमींदार, साहूकार और सूदखोर पहले से नहीं रहे हैं, लेकिन वे पूरी तरह खत्म हो गए हैं, यह कहने की भी कोई वजह नहीं.
हुआ इतना भर है कि उन की शक्लसूरत बदल गई है. अब उन के साथसाथ सरकारी मुलाजिम भी गरीबों का शोषण करने लगे हैं, जो बिना घूस लिए अनपढ़ आदिवासियों का कोई काम नहीं करते और सरकारी योजनाओं में जम कर घपलेघोटाले करते हैं.
लेकिन नक्सलियों की नजर में इस से भी बड़ी समस्या पूंजीपतियों का आदिवासी इलाकों में बढ़ता दखल है, जिस का जिम्मेदार वे सरकार को मानते हैं.
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आदिवासी इलाकों को कुदरत ने कीमती तोहफों से जीभर कर नवाजा है. मसलन खनिज, जंगली उपज, उपजाऊ जमीन, पानी और मेहनतकश मजदूर, इसलिए इन इलाकों पर देशभर के धन्ना सेठों की नजर रहती है, जिन का मकसद यहां फैक्टरियां और कारखाने लगा कर पैसा बनाना है.
जल, जंगल और जमीन पर सब से पहला हक आदिवासी का है, यह बात सरकार सम?ा और मान ले तो नक्सलियों का रुख कुछ तो नरम होगा. इस के अलावा सरकार को सम?ाना यह भी होगा कि हिंसा और मुठभेड़ इस समस्या का हल नहीं है. जब तक सरकार नक्सलियों से मिलबैठ कर बात नहीं करेगी, तब तक जवान मरते रहेंगे.