आजकल पर्यटन पर खास जोर है. जि parytanसे देखो वही कहीं न कहीं जा रहा है. कोई शिमला, कोई मनाली, कोई ऊटी. पत्नी भी कहां तक सब्र रखती, आखिर एक दिन कह ही दिया, ‘‘देखो, बहुत हो गया. इतने साल हो गए हमारी शादी को, आप कहीं नहीं ले जाते. ले दे कर पीहर और रिश्तेदारों के अलावा आप की डायरी में दूसरी कोई जगह ही नहीं है. अब तो किटी में भी लोग मुझ से पूछते हैं, ‘मिसेज शर्मा, आप कहां जा रही हो.’ अब मैं क्या जवाब दूं. मैं ने भी उन से कह दिया कि हम भी इस बार हिल स्टेशन जा रहे हैं.
‘‘इस बार आप पक्की तरह सुन ही लो. हमें इस बार किसी न किसी हिल स्टेशन पर जाना ही है, चाहे लोन ही क्यों न लेना पड़े. मेरी नाक का सवाल है,’’ यह कह कर वह कोपभवन में चली गईं.
हमारे जैसे शादीशुदा लोग पत्नी के कोप से अच्छी तरह परिचित हैं. वे जानते हैं कि एक बार निर्णय लेने के बाद पत्नियों को कोई नहीं समझा सकता, सो मैं ने समझौतावादी नीति अपनाई और उन्हें बातचीत के लिए आमंत्रित किया. एकतरफा बातचीत के बाद मैं ने मान लिया कि इस बार शिमला जाना ही हमारी नियति है.
रेलवे टाइमटेबिल में से कुछ गाडि़यां नोट कर मैं रिजर्वेशन कराने रेलवे के आरक्षण कार्यालय पहुंचा. कार्यालय बिलकुल खाली पड़ा था. मैं मन ही मन खुश हो उठा कि चलो अच्छा हुआ, अभी 5 मिनट में रिजर्वेशन हो जाएगा.
चंद मिनटों में मेरा नंबर भी आ गया.
‘‘लाइए,’’ यह कहते हुए आरक्षण क्लर्क ने मेरा फार्म पकड़ा और उस पर अपनी पैनी नजर फिरा कर मुझे वापस पकड़ा दिया.
‘‘क्या हुआ?’’ मैं ने चौंक कर पूछा, ‘‘आप ने फार्म वापस क्यों दे दिया?’’
वह क्लर्क हंस कर बोला, ‘‘भाईसाहब, गाड़ी में नो रूम है यानी कि अब जगह नहीं है.’’
‘‘तो कोई बात नहीं, दूसरी गाड़ी में दे दीजिए.’’
‘‘इस समय इस ओर जाने वाली किसी भी गाड़ी में कोई जगह नहीं है.’’
‘‘कैसी बात करते हैं. सारे काउंटर खाली पड़े हैं और आप हैं कि…’’
‘‘ऐसा है, आप तैश मत खाइए. सारी गाडि़यां 2 महीने पहले ही बुक हो गई हैं. अब कहें तो जुलाई का दे दें.’’
एकाएक मुझे खयाल आया कि मैं भी कैसा बेवकूफ हूं. नहीं मिला तो अच्छा ही हुआ. अब कम से कम इस बहाने जाने से तो बचा जा सकता है.
मैं खुशीखुशी घर लौट आया और जैसे ही घर में प्रवेश किया तो यह देख कर हैरान रह गया कि वहां महल्ले की किटी कार्यकारिणी की सभी महिला पदाधिकारी अपने बच्चों सहित मौजूद थीं.
‘‘भाईसाहब, बधाई हो, आप ने शिमला का निर्णय ठीक ही लिया, पर लगे हाथ कुल्लूमनाली भी हो आइएगा,’’ मिसेज वर्मा बोलीं.
‘‘अरे, जब वहां जा रहे हैं तो कुल्लूमनाली को कैसे छोड़ देंगे,’’ श्रीमतीजी चहक कर बोलीं.
‘‘और भाईसाहब, रिजर्वेशन ए.सी. में ही करवाइएगा, नहीं तो आप पूरे रास्ते परेशान हो जाएंगे.’’
‘‘अरे भाभीजी, हमारे साहब के स्वभाव में तकलीफ उठाना तो बिलकुल नहीं है. हम ने तो ए.सी. में ही रिजर्वेशन करवाया है. इन्होंने तो होटल में भी ए.सी. रूम ही बुक करवाए हैं.’’
मुझे काटो तो खून नहीं. केवल स्टेटस सिंबल के लिए श्रीमतीजी झूठ पर झूठ बोलती जा रही थीं.
चायनाश्ते के दौर के बाद जब महिला ब्रिगेड विदा हुई तो मैं धम से सोफे पर पड़ गया.
उन्हें छोड़ कर वे अंदर आईं तो मेरा हाल देख कर घबरा गईं, ‘‘क्या हो गया, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न.’’
मैं ने श्रीमतीजी को रिजर्वेशन की असलियत बताई तो वह बिफर उठीं, ‘‘तुम कैसे आदमी हो, तुम से एक रिजर्वेशन नहीं हुआ. मैं नहीं जानती. मुझे इस बार शिमला जरूर जाना है. अब तो मेरी नाक का सवाल है,’’ कह कर वह अंदर चली गईं.
बेटी, मां की बात सुन कर मुसकराई, ‘‘देखो पापा, मम्मी की नाक का सवाल बहुत बड़ा होता है. इस सवाल में अच्छेअच्छों के कान भी कट जाते हैं. ऐसा करते हैं, गाड़ी कर के चलते हैं.’’
अब इस फैसले को मानने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था.
सीने पर पत्थर रख कर मैं गाड़ी की बात करने गया. गाड़ी का रेट सुन कर मेरे होश उड़ गए, पर क्या करता, श्रीमतीजी की नाक का सवाल सब से बड़ा था. मुझे लगा, जितने पैसे में घूम कर आ जाते, उतना तो गाड़ी ही खा जाएगी, लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था.
देखतेदेखते वह दिन भी आ गया. सोसायटी की सभी महिलाएं विदा करने आईं. श्रीमतीजी फूली नहीं समा रही थीं. वह मेरी तरफ ऐसे देख रही थीं जैसे कह रही हों, देखो, मेरी इज्जत. हां, बात करतेकरते सभी महिलाएं अपने लिए शिमला से कुछ न कुछ लाने की फरमाइश कर रही थीं, जिसे श्रीमतीजी सहर्ष स्वीकार करती जा रही थीं. इन फरमाइशों की सूची सुन कर मेरा दिल घबराने लगा था.
अंतत: गाड़ी रवाना हुई तो श्रीमतीजी ने प्रधानमंत्री की तरह हाथ हिला कर सोसायटी वालों से विदा ली. थोड़ी देर में सूरज सिर पर आ गया. लू के थपेड़े चलने लगे. गाड़ी बुरी तरह तप रही थी. जहां हाथ लगाओ वहीं ऐसा लगता था जैसे गरम सलाख दाग दी गई हो. कुछ देर में पत्नी, फिर बेटी धराशायी हो गई.
बेटा मां से लड़ने लगा, ‘‘यह कौन सा हिल स्टेशन है? हम सहारा मरुस्थल में चल रहे हैं क्या?’’
श्रीमतीजी कराहती हुई बोलीं, ‘‘अरे बेटा, यह तेरे पापा की कंजूसी से ऐसा हुआ है. मैं ने तो ए.सी. गाड़ी लाने को कहा था.’’
जवाब में बेटा और बेटी अपने कलियुगी पिता को घूरने लगे. मैं क्या करता, मैं ने निगाहें नीचे कर लीं.
दवाइयां खाते, उलटियां करते जैसेतैसे कर के शिमला तक पहुंचे. शिमला तक का रास्ता आलोचनाओं में अच्छी तरह कटा. उन की आलोचनाओं का केंद्र मैं जो था.
शिमला पहुंच कर सब ने चैन की सांस ली. ड्राइवर ने सड़क के एक ओर गाड़ी लगा दी.
बेटा अचानक गाड़ी को रुकते देख बोला, ‘‘क्यों पापा, होटल आ गया?’’
‘‘हां, बेटा, तेरे पापा ने फाइव स्टार होटल बुक करा रखा है,’’ श्रीमतीजी व्यंग्य से बोलीं.
ड्राइवर भी हैरान रह गया, ‘‘क्या साहब, आप ने होटल भी बुक नहीं करवाया? सीजन का टाइम है. क्या पहली बार घूमने आए हो?’’
‘‘हां, भैया, पहली बार ही आए हैं. हमारी तकदीर में बारबार घूमने आना कहां लिखा है,’’ श्रीमतीजी लगातार वार पर वार कर रही थीं, ‘‘जा बेटा, उठ और होटल ढूंढ़, मेरे तो बस की नहीं है.’’
फिर बेटे और बेटी को ले कर गलीगली घूमने लगा. ज्यादातर होटल भरे हुए थे, हार कर एक बहुत महंगा होटल कर लिया. अब सब बहुत खुश थे.
उस दिन आराम किया. शाम को माल रोड घूमने निकले. मैं उन्हें बता रहा था, ‘‘देखो, रेलिंग के नीचे घाटी कितनी सुंदर लग रही है,’’ पर घाटी को निहारने के बाद अपना सिर घुमाया तो पाया मैं अकेला था. ये तीनों अलगअलग दुकानों में घुसे हुए थे.
थोड़ी देर बाद बेटी आई और हाथ पकड़ कर दुकान में ले गई, ‘‘देखो पापा, कितनी सुंदर ड्रेस है.’’
‘‘अच्छा भई, कितने की है?’’ लाचारी में मुझे पूछना पड़ा.
‘‘बस सर, सस्ती है. आप को डिस्काउंट में दे देंगे. मात्र 2 हजार रुपए.’’
मुझे मानो करंट लगा, ‘‘अरे भई, तुम तो दिन दहाड़े लूटते हो. यह डे्रस तो कोटा में 300-400 से ज्यादा की नहीं मिलती है.’’
दुकानदार ने डे्रस मेरे हाथ से छीन ली, ‘‘कोई दूसरी दुकान देखिए साहब, हमारा टाइम खराब मत कीजिए.’’
बेटी को भारी धक्का पहुंचा. बाहर निकलते ही वह रोने लगी, ‘‘आप भी बस पापा, कितना अपमान करवाते हैं.’’
तभी श्रीमतीजी भी बेटे के साथ आ गईं. बेटी को रोते देख उन्होंने मेरी जो क्लास ली कि मेरी जेब का अच्छाखासा पोस्टमार्टम हो गया.
दूसरे दिन कूफरी घूमने का प्रोग्राम बना. कूफरी में घोड़े वाले पीछे पड़ गए कि साहब, ऊपर पहाड़ी पर चलें. मुझे घुड़सवारी में कोई दिलचस्पी नहीं है और फिर रेट इतने कि मैं ने साफ मना कर दिया.
‘‘तुम ऊपर चले चलोगे तो बच्चों का मन बहल जाएगा. बच्चों का मन रखने के लिए क्या इतना भी नहीं कर सकते.’’
‘‘नहीं, बिलकुल नहीं कर सकता,’’ मुझे पत्नी पर गुस्सा आ गया, ‘‘एक बार घर वालों का मन रखने के लिए घोड़ी पर चढ़ा था जिस का मजा आज तक भोग रहा हूं… अब और रिस्क नहीं ले सकता.’’
मेरे इस व्यंग्य को सुन कर श्रीमतीजी ने रौद्र रूप धारण कर लिया. फिर क्या था, मुझे सपरिवार घोड़े की सवारी करनी ही पड़ी. लेकिन जिस बात का डर था, वही हुआ. घोड़े पर से उतरते वक्त मैं संतुलन खो बैठा और धड़ाम से नीचे जा गिरा. मेरे पांव में मोच आ गई. मेरा उस दिन का सफर गाड़ी में बैठेबैठे ही पूरा हुआ. वे बाहर घूमतेफिरते, मजे करते रहे और मैं अंदर बैठाबैठा कुढ़ता रहा.
शाम को वहीं एक डाक्टर को दिखाया. उस ने कहा, ‘‘कोई चिंता की बात नहीं है. एकदो दिन आराम करोगे तो ठीक हो जाएगा.’’
दूसरे दिन सुबह मैं पलंग पर लेटा रहा. तीनों सदस्य अर्थात श्रीमतीजी, पुत्र व पुत्री तैयार होते रहे. थोड़ी देर बाद वे तीनों एकसाथ आ कर मेरे सामने बैठ गए.
मैं बोला, ‘‘कोई बात नहीं. चोट लग गई तो लग गई. तुम लोग परेशान मत हो. जा कर घूम आओ.’’
‘‘हम क्यों परेशान होंगे. हम तो पैसे के लिए बैठे हैं.’’
पैसे ले कर तीनों सुबह के निकले तो रात तक ही लौट कर आए. उन्होंने इतना सामान लाद रखा था कि बड़ी मुश्किल से उठा पा रहे थे.
धीरेधीरे उन्होंने एकएक सामान का रेट बताना शुरू किया तो मेरा दिल बैठ गया. मैं ने खर्च का हिसाब लगाया तो सिर्फ इतने ही रुपए बचे थे कि बस होटल का बिल चुका कर हम जैसेतैसे घर पहुंच सकें.
रात को बैठ कर सारी पैकिंग की गई. कुल्लूमनाली न जाने की बाबत अफसोस जाहिर किया गया और यह चिंता जतलाई गई कि अब श्रीमतीजी घर पहुंच कर कैसे मुंह दिखाएंगी.
दूसरे दिन उदासी भरे चेहरों को ले कर वे शिमला से रवाना हुए और साथ में मुझे लेना भी नहीं भूले.
कुछ घंटों बाद जब हमारी कार पहाड़ों को छोड़ कर मैदानों में पहुंची तो गरमी अपना विकराल रूप दिखाने लगी. लू के थपेड़े खाते हुए जब हम घर पहुंचे तो श्रीमतीजी के आगमन पर पूरा महल्ला इकट्ठा हो गया. श्रीमतीजी रास्ते की थकान भूल गईं.
वह बढ़ाचढ़ा कर शिमला का बखान सुनाने लगीं. सब लोग धैर्य से सुनते रहे. फिर समापन के समय वस्तुवितरण समारोह हुआ. श्रोताओं का धैर्य टूट गया. वे सामानों की आलोचना करने लगे.
‘‘अरे, मिसेज शर्मा, यह शाल थोड़ा आप हलका ले आई हैं.’’
‘‘हां, कपड़े भी ठीक नहीं आए. फुटपाथ से लेने में क्वालिटी हलकी आ ही जाती है.’’
‘‘मिसेज शर्मा, आप ने तो बस घूमने का नाम ही किया, कुल्लूमनाली हो कर आतीं तो कुछ बात भी थी.’’
थोड़ी देर बाद सब चले गए. घर की 3 सदस्यीय ज्यूरी के सामने मैं अपराधी बैठा था. अपराध सिद्ध करने के लिए महल्ले के सभी गवाह पर्याप्त थे.
मुझे दोषी माना गया और सजा दी गई कि अब क्रिसमस की छुट्टियों में गोवा घूमने चलेंगे, जिस का सब इंतजाम बेटा पहले से ही कर लेगा और मुझे सिर्फ एक काम करना होगा, एक भारी राशि का चेक साइन करना होगा ताकि सबकुछ अच्छी तरह से निबट सके.